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प्रथमोऽध्यायः
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सम्यग्दर्शनाभावो भवेदित्यव्याप्तिर्नाम लक्षणस्य दोषः समापनिपद्यते । तस्मादेतल्लक्षणं सम्यक्त्वस्य परित्यज्यते इति । तच्च सम्यग्दर्शनं सरागवीतरागविकल्पाद्विविधम् । प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सरागसम्यक्त्वम् । आत्मविशुद्धिमात्रं वीतरागसम्यक्त्वमिति । रागादीनामनुद्रेकः प्रशमः । संसारभीरुता संवेगः । जीवेषु दयालुताऽनुकम्पा । सर्वज्ञवीतरागप्रणीतपरमागमे यथैव जीवादिरर्थः प्रतिपादितस्तथैव सोऽस्तीति मतिर्यस्यास्ति स आस्तिकस्तस्य भावः कर्म वास्तिक्यम् । सत्येवास्तिक्ये प्रशमादीनां व्यस्तसमस्तानां सम्यक्त्वाभिव्यञ्जकत्वम् । तदभावे मिथ्यादृष्टिष्वपि प्रशमादित्रितयस्य सम्भवात् । प्रास्तिक्यं पुनः केवलमपि सम्यग्दर्शनस्याभिव्यक्तिहेतुरित्यलं प्रसङ्ग ेन । सम्यग्दर्शनोत्पत्तिहेतुद्वयसंसूचनार्थमिदमुच्यते
रुचि ही सम्यक्त्व है ऐसा कोई कहते हैं, रुचि, इच्छा और अभिलाषा ये एकार्थ वाचक शब्द हैं, यह रुचि चारित्र मोह के लोभ कषाय के भेद स्वरूप है, अब यदि इस रुचि को सम्यक्त्व का लक्षण मानेंगे तो अति व्याप्ति और अव्याप्ति ये दो दोष आयेंगे । देखिये ! जब मिथ्यादृष्टि व्यक्ति अपने बहु श्रुतत्व को प्रसिद्ध करने की इच्छा से अथवा जिनमत का निराकरण करने की वांछा से या परमत की जिज्ञासा से भगवत् अर्ह सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत आगम के विषयभूत जीवादि पदार्थों को जानना चाहते हैं तब उन व्यक्तियों को सम्यग्दष्टि मानना पड़ेगा क्योंकि उनके तत्त्व रुचि है ? किन्तु वे मिथ्या
ही हैं अतः रुचि को सम्यक्त्व कहना अतिव्याप्ति दोष युक्त है । तथा यदि रुचि सम्यक्त्व है तो संपूर्ण मोह के क्षय हो जाने से अर्हन्त देव के सम्यक्त्व गुण का अभाव हो जायगा, इसप्रकार अव्याप्ति नामक लक्षण का दोष प्राप्त होता है, इसलिये यह रुचिवाला सम्यक्त्व का लक्षण त्याज्य है ।
वह सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है सराग सम्यक्त्व और वीतराग सम्यक्त्व | प्रशम संवेग, अनुकंपा और आस्तिक्य गुणों द्वारा जो अभिव्यक्त होता है वह सराग सम्यक्त्व है और आत्म विशुद्ध रूप वीतराग सम्यक्त्व है । रागादि का उद्रेक नहीं होना प्रशम गुण है । संसार से भय होना संवेग है । जीवों में दया होना अनुकंपा कहलाती है । सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत परमागम में जिसप्रकार जीवादि पदार्थों का कथन है उसीप्रकार ही वे हैं ऐसी जिसकी बुद्धि है वह आस्तिक कहलाता है आस्तिक के भाव या कर्म को आस्तिक्य कहते हैं । यह आस्तिक्य महत्व पूर्ण है, इसके होने पर ही प्रशम आदि व्यस्त या समस्त अर्थात् प्रशमादि चारों अथवा तीन दो आदि गुण सम्यक्त्व को