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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ दनवद्यम् । रुचिः सम्यक्त्वमिति केचिदाहुः । रुचिश्चेच्छाभिलाष इत्यनर्थान्तरम् । सा च चारित्रमोहप्रकारस्य लोभकषायस्य भेदस्तस्मिश्च सम्यक्त्वलक्षणेङ्गीक्रियमाणेऽतिव्याप्तयव्याप्तिलक्षणदोषद्वयप्रसङ्गः स्यात् । तथा हि-यदा स्वस्य बहुश्रु तत्वचिख्यापयिषया निराचिकीर्षया परमतस्वरूपजिज्ञासया भगवदर्हत्सर्वज्ञभाषितागमविषयानपि जीवादिपदार्थानवबोद्धमिच्छन्ति मिथ्यादृष्टयस्तदा तेषामपि सम्यग्दृष्टित्वं प्राप्नोतीत्यतिव्याप्ति म लक्षणस्य दोषः स्यात् । तथा निरवशेषमोहस्य संक्षयादर्हतः
दर्शन मोह की एक मिथ्यात्व प्रकृति ही रहती है वह तथा चार अनंतानुबंधी कषाय क्रोध, मान, माया, लोभ इन पांच प्रकृतियों का उपशम होकर उपशम सम्यक्त्वी बनता है। इसका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है, इतने काल तक उक्त पाँच प्रकृतियां उदय में नहीं आती सत्ता में रहती हैं। इस सम्यक्त्व के होते ही मिथ्यात्व के तीन खण्ड हो जाते हैं, उनके नाम मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति इस सम्यग्दर्शन के होने पर अनन्त अथाह संसार भ्रमण का विच्छेद होकर मात्र अर्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण संसार रह जाता है । क्षयोपशम सम्यक्त्व-अनंतानुबंधी चार कषाय तथा मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन छह कर्म प्रकृतियों के उदयावली में स्थित निषेकों में से एक एक निषेकों का प्रति समय स्तिबुक संक्रमण द्वारा पर रूप से उदय में आना [ इस प्रक्रिया को उदयाभावी क्षय कहते हैं ] उदयावली के बाह्य में सत्ता में स्थित उक्त कर्मों का दबा रहना [ इसको सदवस्थारूप उपशम कहते हैं ] तथा सम्यक्त्व प्रकृति उदय में आना क्षयोपशम सम्यग्दर्शन कहलाता है, इसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल छयासठ सागर है । क्षायिक सम्यग्दर्शन-अनंतानुबंधी चार कषाय तथा दर्शन मोहनीय की पूर्वोक्त तीन प्रकृति इन सात प्रकृतियों का सर्वथा नाश होना क्षायिक सम्यक्त्व है । यह केवली या श्रुत केवली के पादमूल में कर्मभूमि के मनुष्य के ही संभव है । यह होने के बाद कभी नहीं छूटता अतः सादि अनंत है। इन तीनों सम्यक्त्व का वर्णन लब्धिसार नामा ग्रंथ में अति विस्तृत रूप से है, यहां तो नाम मात्र कहा है । भव्यात्माओं को उक्त ग्रंथ से इसका ज्ञान अवश्य करना चाहिये । यह सम्यग्दर्शन संसार रूप सागर के अथाह जल को चुल्लुभर जल जितना कर देता है, यही मुक्ति पुरी का पाथेय है, सर्व दुःखों का नाशक है, यही प्राप्तव्य है ।
सम्यक्त्व का सूत्रोक्त लक्षण अतिव्याप्ति, अव्याप्ति और असंभव दोषों से रहित होने से निर्दोष है।