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________________ तत्र सम्यग्दर्शनलक्षणप्रतिपादनार्थमाह द्वितीयोऽध्यायः [ १५ तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ २ ॥ तेषां भावः स्वरूपभवनं तत्त्वं - जीवादिवस्तुयाथात्म्यमित्यर्थः । तत्त्वेनार्यन्ते ज्ञायन्त इति तत्त्वार्था जीवादयो वक्ष्यमाणलक्षणास्तेषां श्रद्धानम् । दर्शनमोहोपशमक्षयक्षयोपशमापेक्षं विपरीताभिमानरहितमात्मस्वरूपं सम्यग्दर्शनं प्रत्येतव्यम् । इदं लक्षंणमतिव्याप्तयव्याप्तयसंभवदोषरहितत्वा प्रथम सूत्र में कथित सम्यग्दर्शन के लक्षण का प्रतिपादन करने के लिये अगला सूत्र कहते हैं --- सूत्रार्थ – “तेषां भावः तत्त्वं" यह तत्त्व शब्द की निरुक्ति है, उनका भाव अर्थात् अपने रूप से होना - जीवादि पदार्थों का यथार्थपना तत्त्व कहलाता है । यथार्थ रूपसे जो जाने जाते हैं वे आगे कहे जाने वाले जीवादि पदार्थ तत्त्वार्थ कहलाते हैं, उनका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । वह सम्यग्दर्शन दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से होता है और विपरीत मान्यता से रहित आत्म स्वरूप होता है । विशेषार्थ - सम्यग्दर्शन के तीन भेद हैं, उपशम सम्यग्दर्शन, क्षयोपशम सम्यग्दर्शन और क्षायिक सम्यग्दर्शन यहां पर इन तीनों का वर्णन किया जाता है— अनादि मिथ्यादृष्टि को सर्व प्रथम उपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है इसकी प्राप्ति में पांच लब्धियां होना आवश्यक है, क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, प्रायोग्य और करण लब्धि । कर्मों की शक्ति का प्रतिसमय अनन्त गुणा हीन- कम कम रूप से उदय में आना क्षयोपशम लब्धि है । साता आदि पुण्य प्रकृति के बंध योग्य परिणाम होना विशुद्धि लब्धि है जिन प्रणीत तत्त्वों के उपदेशक की प्राप्ति आदि रूप देशना लब्धि है । कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को घटा घटा के अन्तः कोटाकोटी मात्र स्थापित करना एवं अशुभ कर्मों का अनुभाग द्विस्थानीय ( घातिया कर्म का लता और दारु स्वरूप तथा अघातिया पाप कर्मों का निंब और कांजीर स्वरूप ) स्थापित करना प्रायोग्य लब्धि है । अधःकरण आदि रूप अत्यंत विशुद्ध परिणाम जिनके द्वारा नियम से सम्यक्त्व होता है उसे करण लब्धि कहते हैं । पहले की चार लब्धियां होने पर भी सम्यक्त्व होना आवश्यक नहीं है अर्थात् ये चार होकर छूट जाती हैं किन्तु पांचवीं करण लब्धि होने पर नियम से सम्यक्त्व होता है । अनादि मिथ्यात्वी के
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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