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________________ १४ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ तथा सकलमलापाये द्रष्टुः स्वरूपावस्थानं यदि कापिलैः सर्वथा बुद्धिरहितं प्रतिपाद्येत तदा तस्य कुम्भादिवदचेतनत्वमेवापनिपद्येत । अथ यत्रैवात्मनि चक्षुरादीन्द्रियसद्भावस्तत्रैव बुद्धिर्भवेन्न पुनर्मुक्तामनि तदभावादिति मतं तदप्ययुक्तमन्धस्यापि सत्यस्वप्नदर्शनसम्भवात् । तथा यद्येकं ब्रह्म निस्तरङ्ग कुतश्चित्प्रमाणाद्वेदान्तवादिनां मते सिध्येत्तदाकाशे घटाकाशवत्तत्रेदं सर्वं जगल्लीयते । न चादोऽस्ति । अथ मतमेतत् — एक एव हि भात्यत्मा देहिदेहे व्यवस्थितः । एकधा बहुधा वापि दृश्यते जलचन्द्रवत् । इति ॥ तदप्यनुचितं - यथाकाशे एकरूपश्चन्द्रो जलादिषु चानेकरूपश्च जलैरुपलभ्यते, तथा सकलभेदेभ्योऽन्यत्र नैकस्वभावं ब्रह्म संवेद्यते किं तर्ह्य नेकस्वभावमेव देहादिभेदेषु प्रवर्तमानं संवेद्यत इति न ब्रह्मकं नामेत्यलमतिविस्तरेण । जिनमतोक्तस्यैव मोक्षस्वरूपस्य प्रमाणोपपन्नत्वसम्भवात् । तदुक्तम्— आनन्दो ज्ञानमैश्वर्यं वीर्यं परमसूक्ष्मता । एतदात्यन्तिकं यत्र स मोक्षो जिनशासने ।। इति ॥ कथन तब सिद्ध हो जब एक निस्तरंग - निर्विकल्प ब्रह्म किसी प्रमाण द्वारा वेदान्ती के मत में सिद्ध हो जाय, उसके सिद्ध होने से आकाश में घटाकाश के समान उस ब्रह्म में सारा विश्व लीन होवेगा ? किन्तु यह ब्रह्म सिद्ध नहीं है । शंका - एक ही ब्रह्मात्मा प्रतीत होता है वही देह धारियों के देह में व्यवस्थित है वह एक प्रकार का होकर भी बहुत प्रकार का दिखाई देता है जैसे एक ही चन्द्रमा जल में बहुत रूप दिखाई देता है ।। १ ।। समाधान- यह कथन अनुचित है, जिसप्रकार आकाश में चन्द्रमा एक रूप प्रतीत होता है और जलादि में जल के कारण अनेक रूप प्रतीत होता है, उसप्रकार सकल भेदों से अन्य कोई एक स्वभाव वाला ब्रह्म प्रतीति में नहीं आता है वह तो शरीर आदि भेदों में रहता हुआ अनेक स्वभाव रूप ही प्रतीत होता है अतः आपका एक ब्रह्म असिद्ध है । अब इस विषय में अधिक नहीं कहते । इसप्रकार वैशेषिक सांख्य सौगत आदि के मोक्ष के स्वरूप की सिद्धि नहीं होती है । जिनेन्द्र प्रतिपादित मोक्ष स्वरूप ही वास्तविक है क्योंकि वही प्रमाण द्वारा सिद्ध होता है । कहा है कि - आनन्द - सुख, ज्ञान ऐश्वर्य [ ज्ञानरूप ऐश्वर्य ] वीर्य और परम सूक्ष्मता ये गुण जहां पर अत्यन्त उत्कृष्ट होते हैं वह मोक्ष है ऐसा जिनशासन में कहा है ।। १ ।।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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