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________________ प्रथमोऽध्यायः [ १३ ऐश्वर्यमप्रतिहतं सहजो विरागः सृष्टिनिसर्गजनिता वशितेन्द्रियेषु । प्रात्यन्तिकं सुखमनावरणा च शक्ति निं तु सर्वविषयं भगवंस्तवैव ।। इत्येतत्सर्वमनुपन्नमेव स्यान्मुक्तषु ज्ञानाद्यसम्भवेषु सर्वज्ञत्वादिवचनविरोधात् । तथानेकजन्मसङ्कान्तेर्यावदद्याक्षयत्वं पुसो यदि सिद्धं तदा मुक्तयवस्थायां कुतो हेतोस्तस्य हानिः सौगतः प्रतिपाद्येत ? कैसे सिद्ध हो सकता है ? तथा हे भगवन् ! आपके ही अप्रतिहत ऐश्वर्य है, सहज विराग भाव है आप निसर्गतः सृष्टि के रचयिता हैं, इन्द्रियों में वशता, अत्यंत सुख अनावरण शक्ति और संपूर्ण पदार्थ विषयक ज्ञान आपके ही है । इसप्रकार अवधूत का ईश्वर के विषय में कथन है यह सर्व ही कथन असिद्ध है क्योंकि ज्ञान आदि के अभाव रूप मुक्ति मानते हैं ऐसे ज्ञानादि रहित मुक्त जीवों के सर्वज्ञत्वादि गुण विरुद्ध पड़ते हैं। ____बौद्ध ने कहा था कि जीव की सन्तान का अभाव होना मोक्ष है वह असत् है, जिसप्रकार अनेक जन्मों में परिवर्तित होकर आज तक जीव का अक्षयपना सिद्ध है तो आपके द्वारा मुक्त अवस्था में उस जीव सन्तान का नाश क्यों माना जाता है ? कापिल ने कहा था कि बुद्धि आदि का अभाव होने से दृष्टा आत्मा का स्वरूप में स्थित होना मोक्ष है, उसमें हम जैन का कहना है कि संपूर्ण मल-दोषों का अभाव होने पर आत्मा का स्वरूप में जो अवस्थान होता है वह अवस्थान यदि सर्वथा बुद्धि रहित माना जाता है तो घट आदि के समान उस आत्मा के अचेतनपना प्राप्त होता है । शंका-जिस आत्मा में चक्षु आदि इन्द्रियों का सद्भाव रहता है उस आत्मा में ही बुद्धि पाई जाती है, मुक्त आत्मा में चक्षु आदि इन्द्रियों का अभाव है अतः बुद्धि नहीं रहती ? समाधान-यह कथन अयुक्त है, चक्षु आदि इन्द्रियां नहीं हैं इसलिये बुद्धि भी नहीं होती ऐसा कहना गलत है देखिये ! अन्धे पुरुष के चक्षु नहीं है फिर भी उसको सत्य स्वप्न दिखाई देते हैं । ब्रह्माद्वैत वादी ने कहा था कि जैसे घट के नष्ट होने पर घटका आकाश आकाश द्रव्य में लीन होता है वैसे देह के अभाव में प्राणी परमब्रह्म में लीन होता है सो यह
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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