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________________ प्रथमोऽध्यायः जीवाऽजीवास्त्रयबन्धसंवर निर्जरा मोक्षास्तत्वम् ॥ ४ ॥ तत्र चेतनालक्षणो जीवः । चेतना च ज्ञानाद्यात्मिका । अजीवः पुनस्तद्विपरीतलक्षणः । कर्मागमनद्वारमास्रवः । स च मिथ्यादर्शनाद्यात्मको द्रव्यभावरूपः पुद्गलपर्यायो द्रव्यरूपश्वेतनपर्यायो भावरूपः। जीवस्य चेतनाऽचेतनकर्मसम्बन्धो बन्धः । सोऽपि पूर्ववद्रव्यभावभेदाद्विविधः । मिथ्यादर्शनादिचेतनकर्मणा सह जीवस्य तादात्म्यलक्षरणसम्बन्धो भावबन्धः । पौद्गलिकाऽचेतन कर्मणा सह संयोगरूपः सम्बन्धो जीवस्य द्रव्यबन्धः । श्रपूर्वकर्मागमनिरोधो गुप्तिसमित्यादिहेतुकः संवरः । सोपि [ १९ सम्यक्त्व के विषयरूप स्वीकृत जीवादि तत्त्वों के प्रतिपादन के लिये सूत्र कहते हैं 1 सूत्रार्थ - जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं । चेतना लक्षण वाला जीव तत्त्व है, चेतना ज्ञानादि स्वरूप होती है । अजीव इससे विपरीत लक्षणवाला चेतना रहित होता है । कर्मों के आने के द्वार को आस्रव कहते हैं, वह आस्रव मिथ्यादर्शन, अविरति आदि स्वरूप है और उसके द्रव्यास्रव भावास्रव ऐसे दो भेद हैं द्रव्य कर्म के आने रूप पुद्गल की पर्याय द्रव्यास्रव कहलाता है, तथा चेतन की रागादि भावरूप पर्याय भावास्रव है अर्थात् द्रव्यास्रव पुद्गलरूप है और भावास्रव रागादि चिदाभास स्वरूप चेतन है । चेतनरूप रागादि का जीव के साथ संबंध होना एवं अचेतन कर्म का संबंध होना बन्ध है, उसके पहले के समान द्रव्य बन्ध और भाव बन्ध ऐसे दो प्रकार हैं । मिथ्यादर्शन आदि रूप चेतन कर्म के साथ जीव का तादात्म्य लक्षणवाला [ कथंचित् तादात्म्य लक्षणवाला ] संबंध होना भाव बन्ध है । पौदगलिक अचेतन कर्म के साथ जीवका संयोग स्वरूप सम्बन्ध होना द्रव्य बन्ध कहलाता है । गुप्ति, समिति आदि कारणों से नवीन कर्मों का आगमन रुक जाना संवर तत्त्व है । उसके भी द्रव्य संवर और भाव संवर ऐसे दो भेद हैं । सत्ता में संचित हुए कर्मों का एक देश रूप से अभाव होना निर्जरा, उसके द्रव्य निर्जरा और भाव निर्जरा ऐसे दो भेद हैं, तथा सोपाय निर्जरा और निरुपाय निर्जरा ऐसे भी दो भेद हैं । ध्यान आदि तपश्चरण द्वारा कर्मों का झड़ जाना सोपाय निर्जरा है [ इसीको अविपाक निर्जरा कहते हैं ] अपने समय के अनुसार कर्म का उदय में आकर झड़ जाना निरुपाय निर्जरा है [ इसीको
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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