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दशमोऽध्यायः इति यः सुखबोधाख्यां वृत्ति तत्त्वार्थसङ्गिनीम् । षट्सहस्रां सहस्रोनां विन्द्यात्स मोक्षमार्गवित् ।।१।। यदत्र स्खलितं किञ्चिच्छामस्थ्यादर्थशब्दयोः ।
तद्विचार्येव धीमन्तः शोधयन्तु विमत्सराः ।।२।। छंद स्रग्धरा-नो निष्ठीवेन्न शेते वदति च न परं ह्य हि याहीति यातु ।
नो कण्डूयेत गात्रं व्रजति न निशि नोद्घट्टयेद्वा न दत्ते ।। नावष्टभ्नाति किञ्चिद्गुणनिधिरिति यो बद्धपर्यङ्कयोगः । कृत्वा सन्नयासमन्ते शुभगतिरभवत्सर्वसाधुः स पूज्यः ।।३।।
* उपसंहार * .: इस प्रकार श्री भास्करनन्दी विरचित सुखबोधा नामकी तत्त्वार्थवृत्ति संस्कृत टीका का राष्ट्रभाषानुवाद मैंने (आर्यिका जिनमती ने) भव्य मुमुक्षु जीवों के तत्त्वबोधार्थ किया है । इसमें कोई स्खलन हुआ हो तो विबुधजन संशोधन करें, पढ़ें पढ़ावें और स्वपर हित में तत्पर होवें।
॥ इति भद्रभूयात् ॥
संस्कृत ग्रन्थकार को प्रशस्ति... छह हजार श्लोक प्रमाण में एक हजार श्लोक कम अर्थात् पांच हजार श्लोक प्रमाणवाली सुखबोधा नामकी तत्त्वार्थ सूत्र की इस संस्कृत टीका को जो जानता है वह मोक्षमार्ग को अवश्य जानता है ॥१।। इस सुखबोधा टीका में छबस्थता के कारण जो कुछ शब्द और अर्थों का स्खलन हुभा है उसका विचार करके ही मत्सर रहित धीमान पुरुष शोधन करें ॥२॥ जो महा मुनिराज न थूकते हैं, न शयन करते हैं, जो परव्यक्ति के लिये आवो, जावो इत्यादि कुछ भी गमनागमन हेतु नहीं कहते हैं, अपने शरीर को खुजाते भी नहीं, रात्रि में चलते नहीं हैं (लघु शंका के लिये भी) किंवाड़ को न ढ़कते हैं न खोलते हैं । जंभाई लेना अंगड़ाई लेना इत्यादि शरीर की चेष्टा भी नहीं करते हैं, जो गुणों के भण्डार हैं, जो पल्यांकासन लगाकर सदा बैठते हैं । जिन्होंने अंत समय में सल्लेखना पूर्वक प्राण त्यागकर शुभगति-देवगति पायी है, सर्व साधुओं से पूज्य हैं ऐसे एक विशिष्ट गुणयोगी यतिपुंगव हुए हैं ॥३॥ उन मुनिराज के श्री