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________________ ५६६ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती यवमध्यसिद्धा विशेषाधिकाः । अनन्तरानुयोगे सर्वस्तोका अष्टसमयानन्तरसिद्धाः । ततः सप्तसमयानन्तरसिद्धाः संखय य. गुणाः । एवमाद्विसमयानन्तरसिद्ध भ्यः । एवं तावदनन्तरेषूक्तम् । सान्तरेष्वप्युच्यते-सर्वस्तोकाः षण्मासान्तरसिद्धाः । तेभ्य एकसमयान्तरसिद्धाः संखय यगुणाः। तेभ्यो यवमध्यान्तरसिद्धाः संखययगुणाः । ततोऽधस्ताद्यवमध्यांतरसिद्धाः संखय यगुणाः । तेभ्योप्युपरि यवमध्यान्तरसिद्धा विशेषाधिकाः । संखयानुयोगे-सर्वस्तोका अष्टोत्तरशतसिद्धाः सप्तोत्तरसिद्धादय आपञ्चाशत्सिद्धेभ्योऽनन्तगुणाः । एकानपञ्चाशत्सिद्धादय आपञ्चविंशतिसिद्ध भ्योऽसंखय यगुणाः । चतुर्विंशतिसिद्धादय पाएकसिद्ध भ्यः संखये यगुणाः । तदेवं व्याख्यातजीवादितत्त्वार्थविषयं श्रद्धानं ज्ञानं तत्पूर्वकं चारित्रमिति । स्थितम् । एतत्सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षमार्गो नान्यः । तत्प्रणेता सर्वज्ञो वीतरागश्च वन्द्य इति । उत्कृष्ट अवगाहना वाले सिद्ध हैं। उनसे संख्यात गुणे यवमध्य अवगाहना वाले सिद्ध होते हैं । उनसे संख्यात गुणे अधस्तात् यवमध्य अवगाहना वाले सिद्ध हैं । उनसे विशेष अधिक उपरियव मध्य अवगाहना वाले सिद्ध हैं। . अनन्तर की अपेक्षा अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े आठ समय अनन्तर सिद्ध होते हैं । उनसे संख्यात गुणे सात समय अनन्तर सिद्ध हैं। उनसे छह समय अनन्तर सिद्ध हैं । इस प्रकार दो समय अनन्तर सिद्ध तक लगा लेना । इस तरह अनन्तरों में कहा । अब सान्तरों में कहते हैं-सबसे थोड़े षण्मासान्तर सिद्ध हैं। उनसे संख्यात गुणे एक समयान्तर सिद्ध हैं। उनसे संख्यात गुणे यवमध्यान्तर सिद्ध हैं। उनसे संख्यात गुणे अधस्तात् यव मध्यान्तर सिद्ध हैं । उनसे उपरि यव मध्यान्तर सिद्ध विशेष अधिक हैं । संख्याकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहते हैं-सबसे थौड़े एक सौ आठ संख्या में सिद्ध होने वाले हैं। एक सौ सात आदि से लेकर पचास संख्या में सिद्ध होने वाले तक के सिद्ध अनन्त गुणे हैं । उनचास संख्या में सिद्ध होने वाले से लेकर पच्चीस संख्या में सिद्ध होने वाले तक के सिद्ध संख्यात गुणे हैं। चौबीस संख्या में सिद्ध होने वाले सिद्ध से लेकर एक संख्या में सिद्ध होने वाले सिद्धों तक संख्यात गुणे हैं। इस प्रकार व्याख्यान किये गये जो जीवादि तत्त्व हैं उन तत्त्वों का श्रद्धान करना, उनका ज्ञान करना और श्रद्धा तथा ज्ञान से युक्त चारित्र होना, इस तरह ये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय है, इन सम्यग्दर्शनादिरूप ही मोक्षमार्ग है, अन्य दूसरा कोई भी मोक्षमार्ग नहीं है । उस मोक्ष मार्ग के प्रणेता सर्वज्ञ वीतरागदेव होते हैं वे वन्दनीय होते हैं, ऐसा समझना चाहिए ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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