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________________ पाय - दशमोऽध्यायः [ ५६३ क्षेत्रादिभेदभिन्नानां परस्परतः सङ्घयाविशेषोऽल्पबहुत्वमित्युच्यते । तद्यथा-प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया सिद्धिक्षेत्रे सिध्यन्तीति नास्त्यल्पबहुत्वम् । भूतपूर्वनयापेक्षया तु चिन्त्यते । क्षेत्रसिद्धा द्विधा-जन्मतः संहरणतश्च । तत्राल्पे संहरणसिद्धाः। तेभ्यो जन्मसिद्धाः सङ्ख्ययगुणाः । संहरणं द्विविधं- स्वकृतं परकृतं च । तत्र देवकर्मणा चारणविद्याधरैश्च चौर्यनीतानां यत्संहरणं तत्परकृतम् । स्वकृतं तु तेषामेव धारण विद्याधराणां स्वयं क्षेत्रांतरेषु गच्छतां संहरणं भवति । क्षेत्राणां विभाग:-कर्मभूमिरकर्मभूमिः समुद्रो द्वीप ऊर्ध्वमधस्तिर्यक्चेति । तत्र सर्वस्तोका ऊर्ध्वलोकसिद्धाः । तेभ्योऽधोलोकसिद्धाः सङ्ख्ययगुणाः । ततोऽपि तिर्यग्लोकसिद्धा: सङ्ख्य यगुणाः । सर्वस्तोकाः समुद्रसिद्धाः । ततो द्वीपसिद्धाः सङ्घय यगुणाः । एवं तावदविशेषेणोक्तम् । विशेषेण विदमुंच्यते सर्वस्तोका लवणोदसिद्धाः। ततः कालोदसिद्धाः संखय यगुणाः । जम्बूद्वीपसिद्धाः संखय यगुणाः । ततो धातकीखंडसिद्धाः संखय यगुणाः । ततोऽपि पुष्करद्वीपार्धसिद्धाः संखय यगुणाः । परस्पर में संख्या विशेष बतलाना अल्प बहुत्व है । उसी को कहते हैं-प्रत्युत्पन्न नयकी अपेक्षा सिद्धि क्षेत्र में सिद्ध होते हैं अतः अन्तर नहीं है, किन्तु भूतपूर्व नयकी अपेक्षा विचार किया जाता है-क्षेत्र सिद्ध दो प्रकार के हैं जन्म से सिद्ध और संहरण से सिद्ध, उनमें संहरण से सिद्ध होने वाले अल्प हैं और जन्म से सिद्ध होने वाले उनसे संख्यात गुणे हैं। संहरण दो प्रकार का है-स्वकृत और परकृत । उनमें देव क्रिया से और चारण विद्याधरों द्वारा चोरी से जिनको लाया गया है वह जो संहरण है वह परकृत संहरण कहलाता है । और स्वयंकृत संहरण वह कहलाता है कि जो स्वयं चारण विद्याधर हैं-ऋद्धिधारी हैं अतः क्षेत्रान्तर में गये हैं उनका संहरण स्वयंकृत संहरण कहलाता है । क्षेत्रों का विभाग इस प्रकार है-कर्म भूमि, अकर्म भूमि, समुद्र, द्वीप, ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् (तिरछा) उनमें सबसे थोड़े ऊर्ध्वलोक सिद्ध हैं, उनसे अधोलोक सिद्ध संख्यात गुणे हैं। उनसे भी संख्यात गुणे तिर्यग्लोक सिद्ध हैं। सबसे थोड़े समुद्र सिद्ध हैं, उनसे संख्यात गुणे द्वीप सिद्ध हैं। इस तरह यह सामान्य से कहा । विशेष से अब कहते हैं-सबसे थोड़े लवण समुद्र सिद्ध हैं, उनसे कालोदधि समुद्र सिद्ध संख्यात गुणे हैं । जम्बूद्वीप सिद्ध संख्यात गुणा हैं। उनसे धातकी खण्ड सिद्ध संख्यात गुणे हैं। उनसे भी संख्यात गुणे पुष्कर द्वीपार्ध सिद्ध हैं। (यहां पर कर्म भूमि सिद्ध और अकर्म भूमि सिद्ध का कथन छूट गया है, अकर्म भूमि सिद्ध थोड़े हैं उनसे संख्यात गुणे कर्म भूमि सिद्ध हैं । )
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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