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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
मतिश्रुतज्ञानाभ्यां त्रिभिर्मतिश्रुतावधिज्ञानैर्मतिश्रुतमन:पर्ययज्ञानैर्वा चतुभिर्मतिश्रुतावधिमन:पर्ययज्ञानः सिद्धिर्भवति ।
अवगाहनं द्विविधमुत्कृष्टजघन्यभेदात् । श्रात्मप्रदेशव्यापित्वमवगाहनम् । तत्रोत्कृष्ट पञ्चधनु:शतानि पञ्चविंशत्युत्तराणि । जघन्यमर्धचतुर्थारत्नयो देशोनाः । मध्ये विकल्पो ज्ञेयः । एतस्मिन्नवगाहे भूतप्रज्ञापननयापेक्षया सिध्यन्ति । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनेन त्वेतस्मिन्नेवावगाहे देशोने सिध्यन्ति ।
किमन्तरं सिध्यताम् ? अनन्तरं सिध्यन्ति सान्तरं च । तत्रानन्तर्येण जघन्येन द्वौ समयो । उत्कर्षेणाष्टौ समयाः । श्रन्तरं - सिध्यतां सिद्धिविरहितः कालोन्तरम् । तज्जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण षण्मासाः प्रत्येतव्या: ।
सङ्ख्या द्विधा - जघन्योत्कृष्टभेदात् । तत्र जघन्येनैकः सिध्यति । उत्कर्षेणाष्टोत्तरशतसङ्ख्याः सिध्यन्तिः ।
दो, तीन या चार ज्ञान विशेषों से मुक्ति होती है। अर्थात् प्रकृष्ट मतिज्ञान और श्रुतज्ञान से सिद्धि होती है । अथवा किसी के मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों से सिद्धि होती है । अथवा किसी के मति, श्रुत और मन:पर्यय इन तीन ज्ञानों से सिद्धि होती है । और किसी के मति, श्रुत, अवधि और मन पर्यय ज्ञानों से सिद्धि होती है ।
अवगाहना की अपेक्षा बताते हैं— अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट की अपेक्षा दो प्रकार की है । आत्मा के प्रदेश व्याप्त होना अवगाहना है । उनमें उत्कृष्ट अवगाहना पांचसौ पच्चीस धनुष प्रमाण है, और जघन्य अवगाहना साढ़े तीन हाथ से कुछ कम प्रमाण है । मध्य में अनेक विकल्प हैं । इन अवगाहनाओं में भूत प्रज्ञापन नयकी अपेक्षा सिद्धि होती है । वर्त्तमान नयकी अपेक्षा इन्हीं अवगाहनाओं में कुछ कम अवगाहना होकर सिद्धि होती है ।
सिद्ध होने वाले जीवों में क्या अन्तर है ? अनन्तर से भी सिद्धि होती है और सान्तर से भी सिद्धि होती है । अनन्तर से सिद्ध होने वाले जीवों में जघन्य अनन्तर दो समय हैं । उत्कृष्ट से आठ समय हैं । सिद्ध होने वालों के सिद्धि रहित कालको अन्तर कहते हैं । वह अन्तर जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट छह मास का जानना चाहिए ।
संख्या की अपेक्षा कहते हैं—संख्या दो प्रकार की है। उनमें जघन्य से एक सिद्ध होता है, उत्कृष्ट से एक सौ आठ सिद्ध होते हैं । क्षेत्रादि भेदों से जो भिन्न हैं उनकी