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दशमोऽध्याय! .
[ ५५७ तदनन्तरमूध्वं गच्छत्यालोकान्तात् ॥ ५॥ तस्य मोक्षस्याऽनन्तरमूर्ध्वं गच्छति नान्यथा तिष्ठति–पालोकान्तान्न परतोऽप्यभिविधावाडोऽभिधानात् । कुतो हेतोरित्याह
पूर्वप्रयोगादसंगत्वाबन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ॥६॥ आह हेत्वर्थः स पुष्कलोऽपि दृष्टान्तमन्तरेणाभिप्रेतार्थसाधनाय नालमित्यत्रोच्यतेआविद्धकुलालचक्रवव्यपगतलेपालाबुवदेरण्डबोजवदग्निशिखावच्च ॥७॥
तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छति मोक्षपृथिव्यां स्वगमनध्यानाभ्यासवशात्कुम्भकारकरताडितचक्रभ्रमणवदासंस्कारक्षयात् । तथा मृल्लेपतुम्बकस्य पामीये लेपापाये उपर्यवस्थानवत् ; धर्मतप्तरण्डफलकोशा
सूत्रार्म-कर्मों से मुक्त होते ही वह जीव ऊपर लोकान्त तक जाता है ।
उस मोक्ष के अनन्तर ऊपर जाता है, अन्य प्रकार से ठहरता नहीं है । उस मुक्त जीव का गमन लोक के अन्त तक ही होता है आगे नहीं होता, इस बात को बतलाने के लिए अभिविधि अर्थ में 'आङ' शब्द आया है। किस कारण से गमन करता है ऐसा प्रश्न होने पर सूत्र कहते हैं
सूत्रार्थ-पूर्व प्रयोग से, संग रहित होने से, बन्ध का छेद होने से और वैसा गति परिणाम होने से मुक्त जीव ऊर्ध्व गमन करते हैं ।
शंका-ऊर्ध्वगमन के हेतु कहे, हेतु बहुत से होने पर भी दृष्टांत के बिना वे अपने अभिप्रेत इष्ट अर्थ को सिद्ध करने के लिये समर्थ नहीं हो पाते हैं ?
समाधान-ठीक ही कहा । अब दृष्टान्तों को ही बतलाते हैं
सूत्रार्थ-घुमाये गये कुम्हार के चाक के समान, जिसका लेप निकल गया है ऐसे तुम्बड़ी के समान, एरण्ड बीज के समान और अग्नि शिखा के समान मुक्त जीव ऊपर गमन कर जाते हैं।
तदनन्तर मुक्त जीव ऊपर मोक्ष पृथ्वी पर जाते हैं। क्योंकि अपने गमन का ध्यान में अभ्यास किया हुआ है अतः कुंभकार के हाथ से ताडित हुआ चक्र जैसे संस्कार का क्षय होने तक भ्रमण करता है वैसे मुक्तात्मा अभ्यासवश ऊपर गमन करता