________________
५५८ ]
सुखबोधायां तत्त्वार्यवृत्तौ
भावे बीजस्योऽर्ध्वगमनवत्; निर्वातप्रदेशे प्रदीपशिखाया ऊर्ध्वगमनवदिति यथासङ्ख्यं हेतुदृष्टान्तानामभिसम्बन्धो योजनीय: । आलोकान्तादित्यत्र हेतुमाह
धर्मास्तिकायाभावात् ॥ ८ ॥
गत्युपग्रह कारणभूतो धर्मास्तिकायो नोपर्यस्तीत्यलोके गमनाभावः । तदभावे च लोकालोकविभागाभावः प्रसज्यते । आहामी परिनिर्वृता गतिजात्यादिभेदकारणाभावादतीतभेदव्यवहारा एवेति चेत्तन्न - कथञ्चिद्भ ेदस्य सद्भावात् । तदेवाह -
क्षेत्र कालगतिलिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येक बुद्ध बोषितज्ञानावगाहनान्तरसंखचापबहुत्वतः साध्याः ॥६॥
है तथा जैसे मिट्टी के लेप वाली तुम्बड़ी पानी में लेप के हट जाने पर ऊपर आ जाती है, वैसे मुक्त जीव कर्म लेप के हट जाने से ऊपर गमन करते हैं । जैसे - सूर्य के ताप से तपे हुए एरण्ड फल के कोशका - ऊपर के छिलके का अभाव होने पर वह बीज ऊपर जाता है, वैसे मुक्त जीव कर्म सम्बन्ध का अभाव होने पर ऊपर जाता है । जैसे - वायु रहित प्रदेश में दीपक शिखा ऊपर की ओर जलती है, वैसे मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन का स्वभाव होने से ऊपर गमन करते हैं इस प्रकार पूर्व के छठे सूत्र में कहे हैंतुओं का इस सूत्र में कहे दृष्टान्तों के साथ सम्बन्ध लगाना चाहिए ।
।
अब मुक्त जीव लोकान्त तक ही क्यों जाते हैं इसका कारण बतलाते हैंसूत्रार्थ - धर्मास्तिकाय के अभाव होने से मुक्त जीव लोक के आगे गमन नहीं करते हैं ।
गतिरूप उपग्रह के कारणभूत धर्मास्तिकाय लोकाकाश के अन्त भाग के ऊपर नहीं है इसलिये अलोक में मुक्तात्मा गमन नहीं करते हैं । यदि धर्मास्तिकाय नामके द्रव्य को नहीं माना जाय तो लोक और अलोक का विभाग नहीं हो सकता ।
प्रश्न – ये जो मुक्त जीव हैं इनके अब गति-जाति इत्यादि भेदों को करने वाले कारणों का अभाव है अतः वे भेद व्यवहार से रहित ही होते हैं ?
उत्तर - ऐसा नहीं है उनमें कथञ्चित भेद भी है । आगे उसीको कहते हैं