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________________ नवमोऽध्यायः [ ५५१ लेश्याः पुलाकस्योत्तरास्तिस्रः । वकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोः षडपि क्वचित्कदाचित्कुतश्चित्कथंचित्सम्भवन्ति तेषां कदाचित्तपोमदाद्यावेशवशादशुभलेश्याप्रादुर्भावसद्भावात् । तदा च तेषामुपचारत एव यतित्वम् । उपचारनिमित्तं तु द्रव्यलिङ्गसद्भावः । कषायकुशीलस्य परिहारविशुद्धेरुत्तराश्चतस्रः । सूक्ष्मसाम्परायस्य निर्ग्रन्थस्नातकयोश्च शुक्लैव केवला । अयोगास्त्वलेश्याः । उपपाद:-पुलाकस्योत्कृष्ट उपपाद उत्कृष्टस्थितिषु देवेषु सहस्रारे । वकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोविंशतिसागरोपमस्थितिष्वारणाच्युतकल्पयोः। कषायकुशीलनिग्रंथयोस्त्रयस्त्रिशत्सागरोपमस्थितिषु सर्वार्थसिद्धौ। सर्वेषामपि जघन्य उपपादः सौधर्मकल्पे द्विसागरोपमस्थितिषु । स्नातकस्य निर्वाणमेवेति निश्चयः । स्थानं-असंखघ यानि संयमस्थानानि कषायनिमित्तानि भवन्ति । तत्र सर्वजघन्यानि लब्धिस्थानानि पुलाककषायकुशीलयोः । तौ युगपदसंखय यानि स्थानानि गच्छतः । ततः पुलाको व्युच्छिद्यते । 'कषायकुशीलस्ततोऽसंखये यानीष्टस्थानानि गच्छत्येकाकी ।' तत: कषायकुशीलप्रतिसेवनाकुशीलवकुशा युगपदसंखय यानीष्टस्थानानि शुभ लेश्या होती हैं । बकुश और प्रतिसेवना कुशील के कहीं कदाचित् किसी कारण से किसी प्रकार छहों लेश्या सम्भव हैं । उनके कदाचित् अपने तपश्चरण आदि के मदादि के वश से अशुभ लेश्या उत्पन्न हो जाती है। किन्तु अशुभ लेश्या के समय उनके उपचार से ही मुनिपना रहता है। उपचार का भी कारण यह है कि उनके द्रव्यलिंग मौजूद है । कषाय कुशीलों में जो परिहार विशुद्धि संयम वाला कषाय कुशील है उनके उत्तरवर्ती चार लेश्या (कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल) होती हैं। सूक्ष्मसाम्पराय संयम वाले कषाय कुशील तथा निर्ग्रन्थ एवं स्नातक के एक शुक्ल लेश्या ही होती है। अयोगी जिन लेश्या रहित अलेश्य हैं। उपपाद की अपेक्षा व्याख्यान करते हैं-पुलाक मुनिका उपपाद उत्कृष्टता से सहस्रार स्वर्ग में उत्कृष्ट स्थिति वाले देवों में होता है । बकुश, प्रतिसेवना कुशीलों का उपपाद बावीस सागर स्थिति वाले आरण अच्युत स्वर्गों के देवों में होता है । कषाय कुशील और निर्ग्रन्थ का उपपाद तैंतीस सागर स्थितिवाले सर्वार्थ सिद्धि के देवों में होता है। इन सभी का जघन्य से उपपाद सौधर्म कल्प में दो सागर स्थिति वाले देवों में होता है। स्नातक तो निर्वाण ही जाते हैं। स्थान की अपेक्षा वर्णन करते हैं-कषाय के निमित्त से संयम के स्थान असंख्यात होते हैं। उनमें सर्व जघन्य लब्धि स्थान पुलाक और कषाय कुशील के होते हैं। वे दोनों मुनि एक साथ असंख्यात स्थान तक जाते हैं। उसके आगे पुलाक रुक जाता है अर्थात् उनके आगे के संयम लब्धिस्थान पुलाक के नहीं होते । कषाय कुशील उक्त स्थानों से आगे असंख्यात इष्ट स्थानों तक अकेला चला जाता है। उनके आगे कषाय कुशील, प्रति
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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