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________________ नवमोऽध्यायः [ ५४९ विविक्तपरिवारा: कर्बुराचरणयुक्ता वकुशाः । वकुशशब्द शबलपर्यायवाची । कुशीला द्विविधा:प्रतिसेवन कुशीलाः कषायकुशीलाश्चेति । तत्र विविक्तपरिग्रहाः परिपूर्ण मूलोत्तरगुणाः कथञ्चिदुत्तर विरोधिनः प्रतिसेवनाकुशीलाः । वशीकृतान्यकषायोदयाः सञ्ज्वलनमात्रतन्त्राः कषायकुशीलाः । उदकदण्डरा जिवदन भिव्यक्तोदयकर्मारण ऊर्ध्वं मुहूर्तमुद्भिद्यमान केवलज्ञानदर्शनभाजो निर्ग्रन्थाः । प्रक्षीणघातिकर्माणः केवलिनो द्विविधाः स्नातकाः । त एते पञ्चापि निर्ग्रन्थाश्चारित्रपरिणामस्य प्रकर्षाणकर्षभेदे सत्यपि नैगमसंग्रहादिनयापेक्षया सर्वेपि निर्ग्रन्था इत्युच्यन्ते । तेषां विशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह संयमश्रुत प्रतिसेवनातीर्थलिङ्गलेश्योपपादस्थान विकल्पतः साध्याः ||४७ || त एते पुलाकादयः संयमादिभिरनुयोगः साध्या व्याख्येयाः । तद्यथा - पुलाकवकुशप्रतिसेवनाकुर्शीला द्वयोः संयमयोः सामायिकच्छेदोपस्थापनयोर्वर्तन्ते । कषायकुशीला द्वयोः परिहारविशुद्धिसूक्ष्म चितकबरे आचरण युक्त उन मुनिराजों को बकुश कहते हैं। यहां पर बकुश शब्द को अर्थ शबल है । नाना रंग युक्त को शबल या बकुश कहते हैं। कुशील मुनि दो प्रकार के हैं - प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील । उनमें जो परिग्रह से पृथक हैं, मूल और उत्तर गुणों से परिपूर्ण हैं, जिनके कदाचित् उत्तर गुण में विरोध आता है वे प्रतिसेवना कुशील कहलाते हैं । अन्य कषायों का उदय जिनके नहीं आता जो मात्र संज्वलन युक्त हैं वे कषाय कुशील मुनि हैं। जिस प्रकार जल में रेखा खींचने पर वह अभिव्यक्त नहीं रहती है उसी प्रकार जिनका कर्मोदय व्यक्त नहीं है जो मुहूर्त्त के अनन्तर केवलज्ञान को प्रगट करने वाले हैं वे निग्रंथ कहे जाते हैं । जिनके घातिकर्म चतुष्टय नष्ट हो चुके हैं, ऐसे केवली जिनेन्द्र स्नातक कहलाते हैं । इनके दो भेद हैं-सयोगी जिन और अयोगी जिन । ये पांचों ही निर्ग्रन्थ चारित्र परिणामों के प्रकर्ष और अप्रकर्षरूप भेद से भिन्न होने पर भी नैगम संग्रह आदि नयों की अपेक्षा सभी निर्ग्रन्थ ही कहे जाते हैं । ' आगे उन निर्ग्रन्थों की विशेष प्रतिपत्ति के लिये सूत्र कहते हैं सूत्रार्थ - संयम, श्रुत, प्रतिसेवना, तीर्थ, लिङ्ग, लेश्या, उपपाद और स्थान की अपेक्षा उक्त मुनिराजों का व्याख्यान करना चाहिए । पुलाक आदि मुनि महाराज संयम आदि अनुयोगों से साध्यवर्णन करने योग्य हैं। आगे इसीको बताते हैं- पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना कुशील इनके दो संयम होते हैं, सामायिक और छेदोपस्थापना । कषाय कुशील पूर्व के सामायिक छेदोपस्थापना इन दो संयमों से युक्त तथा परिहार विशुद्धि एवं सूक्ष्म साम्पराय संयम इन दो संयमों
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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