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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती गुणनिर्जरत्वात्परस्परतो न साम्यमेषां, किं तहि श्रावकवदमी रितादयो मुगाभेदा न निम्रन्थतामहन्तीत्युच्यते । नैतदेवम् । कुतः ? यस्माद्गुणभेदादन्योन्यविशेषेऽपि नैगमादिनयव्यापारात्सर्वेपि हि भवन्ति।
- पुलाकवकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्वातका निर्ग्रन्थाः ॥४६॥ । · उत्तरगुणभावनापेतमनसो व्रतेष्वपि क्वचित्कदाचित्कथञ्चित्परिपूर्णतामपरिप्राप्नुवन्तोऽविशुद्धतण्डुलसादृश्यात्पुलाका इत्युच्यन्ते । नग्रंन्थ्यं प्रति स्थिता अखंडितव्रताः शरीरोपकरणविभूषानुवतिनोs
देशव्रत धारण करता है उसके अन्तर्मुहूर्त तक असंख्यात गुणी श्रेणि निर्जरा होगी। प्रथमोपशम सम्यक्त्वी की जो निर्जरा हुई है उससे असंख्यात गुणी अधिक निर्जरा इस देश विरत की होती है। काल अन्तर्मुहूर्त होते हुए भी प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अन्तर्मुहुर्त से यह छोटा वाला अन्तर्मुहूर्त है। यह कालका हीनपना अन्तिम स्थान तक समझना तथा अधिक अधिक निर्जरा का क्रम समझना । भाव यह है कि निर्जरा के पूर्वोक्त दशों स्थानों में काल तो अल्प अल्प होता गया है और निर्जरा अधिक अधिक होती गयी है। असंख्यात. गुण श्रेणि निर्जरा आदि विषयों का लब्धिसार ग्रन्थ में बहुत विशद वर्णन पाया जाता है । जिज्ञासुओं को अवश्य अवलोकनीय है । अस्तु ! ': शंका-इन दश स्थान वाले भव्यात्माओं में सम्यग्दर्शन के रहने पर भी असंख्यात गुणी निर्जरा की अपेक्षा परस्पर में सादृश्य नहीं है तो फिर श्रावक के समान गण भेद काले ये विरतादिक निम्रन्थपने के योग्य नहीं होते हैं ?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि इन सबमें गणों की अपेक्षा परस्पर में विशेषता होने पर भी नैगमादि नयों की अपेक्षा सभी निर्ग्रन्थ होते हैं, ऐसा अगले सूत्र में कहते हैं
सूत्रार्थ-पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक ये सभी मनिराज निर्ग्रन्थ कहलाते हैं।
जिनके उत्तर गुणों में भाबना नहीं है, व्रतों में भी कहीं पर कदाचित् किसी प्रकार से पूर्णता नहीं होती इस तरह के मुनिराज अविशुद्ध तण्डुल-छिलका युक्त चावल के समान होने से पुलाक नाम से कहे जाते हैं। जो निर्ग्रन्थता के प्रति उपस्थित हैं अखण्डित व्रतयुक्त हैं, शरीर और उपकरणों को सजाने में लगे रहते हैं, परिवार युक्त हैं,