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________________ नवमोऽध्यायः [ ५४७ मनुभवन्पूर्वोक्तादसंख' यगुणनिर्जरो भवति । स एव द्वितीयशुक्लध्यानानल निर्दग्धघातिकर्म निश्चयः सन् जिनव्यपदेशभाक् पूर्वोक्तादसंखच यगुण निर्जरो भवति । अत्राह सम्यग्दर्शनसन्निधानेऽपि यद्यसंखघ य से अधिक असंख्यात गुणी निर्जरा वाला होता है । वही दूसरे शुक्ल ध्यानरूपी अग्नि से जला दिया है घाती कर्मरूपी ईन्धन को जिसने ऐसा होकर 'जिन' संज्ञा को प्राप्त करता है उस वक्त पहले से असंख्यात गुणी निर्जरा वाला होता है । इस प्रकार ये दस स्थान असंख्यात गुण श्रेणि निर्जरा वाले होते हैं । इनमें सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण काल है । किन्तु वह अन्तर्मुहूर्त्त आगे आगे अल्प अल्प प्रमाण वाला जानना चाहिए । विशेषार्थ - जिस वक्त अनादि मिथ्यादृष्टि को प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है उस वक्त उस भव्यात्मा के सर्व प्रथम क्षयोपशम आदि लब्धियां प्राप्त होती हैं, जो संज्ञी है, पर्याप्तक एवं जाग्रत दशा में है तथा यदि मनुष्य और तिर्यंचगति वाला है तो उसके शुभ लेश्या रहना आवश्यक है ( क्योंकि जो देव है उसके तो नियम से शुभ लेश्या ही होती है और जो नारकी है उसके नियम से अशुभ लेश्या ही होती है । अतः वहां लेश्या का परिवर्तन नहीं है अर्थात् नारकी के अशुभ लेश्या में ही सम्यक्त्व प्राप्त होता है किन्तु मनुष्य और तिर्यंच को सम्यक्त्व प्राप्त करते समय नियम से शुभ लेश्या वाला होना जरूरी है) इस तरह संज्ञित्व आदि के प्राप्त होने पर क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चार लब्धियों का मिलना संभावित होता है तदनन्तर करण लब्धि का नम्बर है । यह होने पर नियम से सम्यक्त्व प्राप्त होता है । करणलब्धि के तीन भेद हैं अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण । प्रकृत में जो असंख्यात गुणी श्रेणि निर्जरा है वह अनिवृत्तिकरण में प्रारम्भ होती है । अनिवृत्तिकरण का काल अन्तर्मुहूर्त्त (छोटा) है । इसके होते ही यह जीव सम्यग्दृष्टि बन जाता है । सम्यक्त्व होने पर अन्तर्मुहूर्त्त तक असंख्यात गुणी श्र ेणि निर्जरा बराबर होती रहती है । असंख्यात गुणी श्रेणि निर्जरा का अर्थ है अन्तर्मुहूर्त्त तक प्रति समय असंख्यात असंख्यात गुणित क्रम से विवक्षित कर्मों के प्रदेश नष्ट होतेजाना । अन्तर्मुहूर्त्त के प्रथम समय में जितने कर्मप्रदेश खिरे उससे दूसरे समय में असंख्यात गुणित ज्यादा प्रदेश खिर जायेंगे, उससे तीसरे समय में असंख्यात गुणित प्रदेश खिरेंगे इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त्त के जितने असंख्यात समय हैं उनमें सब में यही क्रम रहेगा । यह प्रथमोपशम सम्यक्त्वी की बात हुई । इसी प्रकार कोई भव्यात्मा
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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