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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती तत्राद्ययोः शुक्लयोनिश्चयार्थमाह
एकाश्रये सवितर्कविचारे पूर्वे ॥४१॥ एकः पुरुष आश्रयो ययोस्ते एकाश्रये। उभे अप्येते शुक्ले परिप्राप्त श्रुतज्ञाननिष्ठेन पुरुषेणारभ्येते इत्यर्थः । वितर्कश्च विचारश्च वितर्कविचारौ । ताभ्यां सह वर्तेते इति सवितर्कविचारे पूर्वे पृथक्त्वैकत्ववितर्के इत्यर्थः । तत्र यथासङ्खयप्रसङ्गेऽनिष्टनिवृत्त्यर्थमिदमुच्यते
अविचारं द्वितीयम् ॥ ४२ ॥ पूर्वयोर्यद्वितीयं तदविचारं प्रत्येतव्यम् । तदुक्त भवति-आद्यं सवितर्क सविचारं च भवति । द्वितीयं सवितर्कमविचारं चेति । अथ वितर्कविचारयोः कः प्रतिविशेष इत्यत्रोच्यते
ध्यान होता है । काययोग वाले के सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति ध्यान होता है और योगरहित अयोगीजिन के व्युपरतक्रिया निवृत्ति ध्यान होता है।
आदिके दो शुक्लध्यानों का निश्चय करने हेतु सूत्र कहते हैंसूत्रार्थ-पहले के दो शुक्लध्यान एक आश्रय वाले सवितर्क और सविचार होते हैं।
जिन दो ध्यानों का एक पुरुष आश्रय होता है वे एक आश्रय वाले कहलाते हैं। जिसने सम्पूर्ण श्रुतज्ञान प्राप्त कर लिया है उसके द्वारा ही ये दो ध्यान आरम्भ किये जाते हैं, यह उक्त कथन का अभिप्राय है । वितर्क और विचार पदों में द्वन्द्व समास है। जो वितर्क और विचार के साथ रहते हैं वे सवितर्क विचार ध्यान कहलाते हैं। सूत्र में आये हुए पूर्व पद से पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क ये दो ध्यान लिये गये हैं ।
पूर्व सूत्र में यथासंख्य का प्रसंग होने पर अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं
सूत्रार्थ-दूसरा शुक्लध्यान विचार रहित है।
पूर्व के जो दो ध्यान हैं उनमें से दूसरा ध्यान विचार रहित जानना चाहिए। अर्थ यह है कि पहला शुक्लध्यान सवितर्क और सविचार है किन्तु दूसरा शुक्लध्यान सवितर्क तथा अविचार है ।
प्रश्न-वितर्क और विचार में क्या प्रतिविशेष है ? उत्तर-अब क्रमशः आगे इनको बतलाते हैं