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नवमोऽध्यायः
[ ५४१ परे केवलिनः ॥ ३८ ॥ सयोगस्याऽयोगस्य च समुत्पन्न केवलज्ञानस्थोत्तरे शुक्लध्याने भवतः । कानि पुनश्चत्वारि शुक्लानि येषु पूर्वे पूर्वविदः, परे केवलिनोऽवगम्येते ? इत्याह -
पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्मक्रियाप्रतिपातिव्यपरतक्रियानिवृत्तीनि ॥३९॥
पृथक्त्ववितकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवृत्तीनि शुक्लानि वक्ष्यमाणलक्षणानि भवन्ति । तेषां प्रतिनियतयोगावलम्बनत्वप्रतिपादनार्थमाह
अकयोगकाययोगाऽयोगानाम् ॥ ४० ॥ पृथक्त्ववितर्कादिभिर्यथासङ्ख्यमभिसम्बन्धः क्रियते । त्रियोगस्य पृथक्त्ववितर्कम् । तदन्यतमैकयोगस्यकत्ववितर्कम् । काययोगस्य सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति । अयोगस्य व्युपरतक्रियानिवृत्ति भवति ।
उत्तर-इसी को सूत्र द्वारा कहते हैं
सूत्रार्थ- अगले दो शुक्लध्यान केवलीजिन के होते हैं । जिनके केवल ज्ञान प्रगट हो गया है ऐसे सयोगीजिन और अयोगीजिन के उत्तरवर्ती दो शुक्लध्यान होते हैं ।
- प्रश्न-वे चार शुक्लध्यान कौनसे हैं जिनमें से दो पूर्वविदों के और दो केवलियों के होते हैं ऐसा निश्चय किया जाता है ?
उत्तर-इसीको अगले सूत्र में कहते हैं
सूत्रार्थ-पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति और व्युपरतक्रिया निवृत्ति ये चार शुक्लध्यानों के नाम हैं ।
इन चारों ध्यानों का आगे लक्षण कहेंगे ।
उक्त चारों ध्यानों के प्रतिनियत योगों का जो अवलम्बन होता है उनका प्रतिपादन करते हैं
सूत्रार्थ-उक्त चारों शुक्लध्यानों में से क्रम से तीन योग वाले जीव, कोई भी एक योग वाले जीव, काययोग वाले जीव और योगरहित जीव स्वामी होते हैं।
पृथक्त्व वितर्क इत्यादि के साथ यथासंख्य सम्बन्ध करना चाहिए। तीन योग वाले के पृथक्त्ववितर्क ध्यान होता है। तीनों में से कोई एक योग वाले के एकत्ववितर्क