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________________ ५४० ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती विचयः । सन्मार्गापायो नैवमिति वा । कर्मविपाकचिन्तनं विपाकविचयः । तत्कारणात्मपरिणामचिंतनं वा । लोकाकृतिचिन्तनं संस्थानविचयः । लोकस्वभावावधारणं वा । एवमाज्ञादिविचयाय स्मृतिसमन्वाहारो धर्म्यध्यानमवधारणीयम् । तच्च प्रमत्ताऽप्रमत्तयोः, संयतासंयतस्य असंयतस्य तद्विरोधादर्म्यध्यानमुपचारेणैव संभवति । धानन्तरं शुक्लं चतुःप्रकार वक्ष्यमाणभेदमपेक्ष्याद्ययोस्तावत्स्वामिप्रतिपत्त्यर्थमाह शुक्ले चाद्ये पूर्वविवः ॥ ३७॥ वक्ष्यमाणेषु शुक्लध्यानविकल्पेष्वाद्ये शुक्लध्याने देशतः कात्स्नर्यतो वा पूर्वश्रुतवेदिनो भवतःश्रुतकेवलिन इत्यर्थः । चशब्देन धर्म्यमपि पूर्ववेदिनो भवतीति समुच्चीयते । तत्र शुक्ले श्रेण्यारोहिण एव । पूर्वस्य तु धर्म्यमिति व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिविभागः । तदुत्तरे कस्येत्याह करना आज्ञाविचय धर्म्यध्यान है। इस प्रकार सन्मार्ग से जीव दूर होते हैं इत्यादि विचार करना-परीक्षा करना अपायविचय धर्म्यध्यान है । अथवा ऐसा करने से सन्मार्ग का अपाय नहीं होता। इस तरह चिन्तन करना अपायविचय ध्यान है। कर्मों के विपाक का चिन्तन करना विपाकविचय धर्म्यध्यान है। अथवा कर्म के उदय से आत्मा के इस तरह परिणाम होते हैं इत्यादि चिन्तन करना विपाकविचय है। लोक के आकृति का चिन्तन करना अथवा लोक के स्वरूप का निश्चय करना संस्थानविचय धर्म्यध्यान है । इस प्रकार आज्ञा आदि की विचय-परीक्षा हेतु स्मृति का बार बार प्रवर्तन होना धर्म्यध्यान है ऐसा समझना चाहिए। यह धर्म्यध्यान प्रमत्त और अप्रमत्त मुनिके होता है । देशविरत और अविरत सम्यग्दृष्टि के धर्म्यध्यान उपचार से ही सम्भव है। धर्म्यध्यान के अनन्तर चार प्रकार का शुक्लध्यान कहा जायगा उनकी अपेक्षा आदि के दो शुक्लध्यानों के स्वामियों की प्रतिपत्ति के लिये सूत्र कहते हैं सूत्रार्थ-आदि के दो शुक्लध्यान पूर्व विद के होते हैं । वक्ष्यमाण शुक्लध्यानों के भेदों में से आदि के दो शुक्लध्यान देशतः पूर्वविद मुनि के या पूर्णतः पूर्वविद मुनि के होते हैं। पूर्वविद का अर्थ श्रुतकेवली है। च शब्द से पूर्वविद मुनि के धर्म्यध्यान भी होता है ऐसा समझना। उनमें शुक्लध्यान श्रेणिका आरोहण करने वाले मुनिराजों के ही होता है। श्रेणि के पहले तो धर्म्यध्यान होता है ऐसा व्याख्यान से विशेष बोध हो जाता है। प्रश्न-आगे के शुक्लध्यान किनके होते हैं ?
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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