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________________ ५२८ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती नवभेदं प्रायश्चित्तं, चतुर्भेदो विनयः, दशभेदं वैयापृत्यं, पञ्चभेदः स्वाध्यायः, द्विभेदो व्युत्सर्ग इति यथाक्रमं यथासङ्खयन सम्बन्धोऽवधारणीयः प्राग्ध्यानादिति वचनात् । तत्र प्रायश्चित्तभेदानाह अालोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनाः ॥२२॥ तत्र गुरवे स्वयंकृतवर्तमानप्रमादनिवेदनं निर्दोषमालोचनम् । मिथ्यादुष्कृताभिधानाद्यभिव्यक्तप्रतिक्रियमतीतदोषनिराकरणं प्रतिक्रमणं । ते एवालोचनप्रतिक्रमणे तदुभयम् । संसक्तोपकरणादिविभाजनं विवेकः । कायोत्सर्गादिकरणं व्युत्सर्गः । अनशनादिलक्षणं तपः । दिवसपक्षादिनाप्रव्रज्याहापनं छेदः । पक्षादिविभागेन दूरतः परिवर्जन परिहारः। पुनर्दीक्षाप्रापणमुपस्थापना। एवं प्रतिज्ञातव्रते चित्तदाढर्याराधनं लोकचित्तरञ्जनं प्रायश्चित्तं नवभेदं प्रत्येतव्यं । विनयप्रकारानाह प्रायश्चित्त नौ भेद वाला है, विनय के चार भेद हैं, वैयापृत्य दस प्रकार का है, पांच प्रकार का स्वाध्याय है और दो तरह का व्युत्सर्ग है ऐसा संख्या का क्रम जानना चाहिए, यह नौ आदि भेद ध्यान के पहले के तपों के हैं इस बात को बतलाने हेतु 'प्राग्ध्यानात्' ऐसा सूत्र में पद आया है । उनमें प्रायश्चित्त के नौ भेद बतलाते हैं सूत्रार्थ-आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभव, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना ये प्रायश्चित्त के नौ भेद हैं । - अपने द्वारा प्रमाद वश किये गये दोषों को गुरु के समक्ष निष्कपट भाव से कह देना आलोचना कहलाती है। मेरे दोष मिथ्या हों इस प्रकार से व्यक्तरीत्या अतीत दोष को दूर करना प्रतिक्रमण है । आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करना तदुभव है। संसक्त उपकरण आदि का विभाग करना विवेक नामका प्रायश्चित्त है। कायोत्सर्गादि करना व्युत्सर्ग है । अनशनादि तप है । दिवस पक्ष आदि से दीक्षा को कम करना छेद है । पंद्रह दिन, मास आदि की गणना से संघ से दूर कर देना परिहार है । पुनः दीक्षा देना उपस्थापना है। ये सब प्रायश्चित्त अपने ग्रहण किये हुए व्रतों में मनकी दृढ़ता बनी रहने के लिए तथा लोगों के प्रसन्नता हेतु किये जाते हैं, दिये जाते हैं। . विशेषार्थ–साधुजनों के व्रतों में कोई दोष आने पर उस दोष को दूर कर प्रायश्चित्त लिया जाता है, जैसा दोष (छोटा या बड़ा) होता है तदनुसार प्रायश्चित्त गुरु जन देते हैं, आलोचना आदि आगे आगे के भेद विशिष्ट विशिष्ट दोष होने पर होते हैं, आलोचना, प्रतिक्रमण और तदुभव ये तीन सामान्यरूप प्रायश्चित्त सामान्य दोषों के
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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