________________
- नवमोऽध्यायः
[ ५२९ ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः ।।२३।। सम्यग्दर्शनादिगुणेषु तद्वत्सु च नीचैर्वृत्तिविनय इत्याख्यायते । तेनाधिकृतेनात्राभिसम्बन्धः क्रियते ज्ञानविनयो दर्शनविनयश्चारित्रविनय उपचारविनयश्चेति । सबहुमानमोक्षार्थज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादिर्ज्ञानविनयः । शंकादिदोषविरहिततत्त्वार्थश्रद्धानं दर्शनविनयः। तत्त्वतश्चारित्रसमाहितचित्तता चारित्रविनयः । प्रत्यक्षेष्वाचार्यादिष्वभ्युत्थानाभिगमनाञ्जलिकरणादिरुपचारविनयः । परोक्षेष्वपि कायवाङ मनोभिरलिक्रियागुणसङ्कीर्तनानुस्मरणादिकं करणीयम् । वैयापृत्यभेदप्रतिपत्त्यर्थमाह
लगने पर आचार्य द्वारा दिये जाते हैं । विवेक आदि प्रायश्चित्त बड़े दोष होने पर दिये जाते हैं। इस प्रायश्चित्त विधि से अपने स्वयं के व्रतों में दृढ़ता होती है, स्वयं की आराधना सिद्ध होती है तथा लोक में भी इससे प्रसन्नता होती है, अर्थात् अमुक साध ने दोष किया था किन्तु उसने दोष को छोड़ दिया तथा आचार्य से कहकर प्रायश्चित्त लिया यह निष्कपट है, इसकी व्रत संयम में आस्था है इत्यादि रूप से जनता को प्रसन्नता होती है । यदि साधु प्रकट रूप से सदोष है और अपना दोष छोड़ता नहीं है प्रायश्चित्त नहीं लेता है तो जनता में उसके प्रति ग्लानि रहती है तथा धर्म में आस्था भी कम हो जाती है।
विनय के प्रकार बताते हैं
सत्रार्थ-ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचार विनय ये चार विनय तप के भेद हैं।
सम्यग्दर्शन आदि गुणों में और गुणवानों में 'नीचैः वृत्ति' नम्रता होना विनय कहलाता है। विनय का अधिकार है अतः सूत्र में कथित ज्ञान आदि के साथ विनय शब्द जोड़ना चाहिए। ज्ञानविनय, दर्शनविनय इत्यादि । बड़े आदर के साथ मोक्ष के लिये ज्ञानको ग्रहण करना, उसका अभ्यास करना, स्मरण करना इत्यादि ज्ञानविनय है। शंका आदि दोषों से रहित तत्त्वों का श्रद्धान करना दर्शनविनय है। वास्तविकपने से चारित्र में मनका स्थिर होना चारित्रविनय है । आचार्य आदि के प्रत्यक्ष होने पर उठ कर खड़े होना, पीछे-पीछे गमन करना, हाथ जोड़ना इत्यादि उपचार विनय है तथा उन्हीं गुरुजनों के परोक्ष में होने पर भी काय, वचन और मनके द्वारा क्रमशः हाथ जोड़ना, स्तुति गुणगान करना, स्मरण करना इत्यादि भी उपचार विनय कहलाता है ।
वैयापृत्य के भेद बताते हैं