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नवमोऽध्यायः
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नम् । घृतादिरसपरित्यजनं रसपरित्यागः । योषिदाद्यसम्पृक्त शय्यासनं विविक्तशय्यासनम् । स्वयंकृतस्थानमौनातपनादिक्लेश : कायक्लेशः । एते षडपि भेदा बाह्यमस्मदादिकरणग्राह्यं तपः कर्मनिर्दहनसमर्थमवबोद्धव्यम् । तथाभ्यन्तरं तपः प्राह
प्रायश्चित्तविनयवैया पूत्यस्वाध्यायव्युत्सगंध्यानान्युत्तरम् ||२०||
एतानि प्रायश्चित्तादीन्युत्तरमाभ्यन्तरं तपः स्वयं संवेद्यत्वादबाह्यद्रव्याऽनपेक्षत्वादन्यतीर्थिकागम्यत्वाच्च । तद्भेदप्रतिपादनार्थमाह
नवचतुर्दशपञ्चद्विमेवं यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् ॥ २१॥
टीका में एव शब्द है उससे यह बताया है कि संयम आदि प्रशस्त निमित्त से किया गया ऊनोदर ही तप है किन्तु क्रोध आदि के अशुभ निमित्त से ऊनोदर करना तप नहीं है । एक घर तक जावू गा वहां आहार मिला तो लूंगा वरना नहीं, ऐसे एक गली तक आधे गांव तक इत्यादि गांव का नियम, दाता का नियम, विधि विशेष का नियम लेकर तदनुसार आहार मिले तो लेना अन्यथा नहीं लेना वृत्तिपरिसंख्यान तप है। घी आदि रस का त्याग रस परित्याग तप है । स्त्री पशु आदि से रहित स्थान पर शयनासन करना विविक्त शय्यासन तप है । स्वयंकृत स्थान मौन, आतप योग इत्यादि से काय का क्लेश सहना कायक्लेश तप है । ये छह तप हम जैसों को ज्ञात होते हैं इन्द्रिय गम्य हैं अतः इन्हें बाह्य तप कहते हैं, ये कर्मों को नष्ट करने में समर्थ हैं ऐसा समझना चाहिए |
अब अभ्यन्तर तप का प्रतिपादन करते हैं—
सूत्रार्थ - प्रायश्चित्त, विनय, वैयापृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह अभ्यन्तर तप के प्रकार हैं ।
इन प्रायश्चित्त आदि को अभ्यन्तर - अन्तरङ्ग तप कहते हैं, क्योंकि ये अन्य को गम्य न होकर स्वयं को गम्य है, इसमें बाह्य वस्तु की अपेक्षा नहीं होती तथा यह अन्य मतावलम्बी को अगम्य है अतः अभ्यन्तर कहलाता है ।
इन्हीं के प्रकारों का प्रतिपादन करते हैं
सूत्रार्थ - प्रायश्चित्त आदि तपों के क्रम से नौ, चार, दस, पांच और दो भेद होते हैं ध्यान को छोड़कर ।