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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
रास्रवनिरोधः संवरः सिद्धयति । तत्र गुप्त्यसमर्थस्य समितिषु वृत्तिस्तासु च वर्तमानस्य धर्मानुप्रेक्षापरीषहजयाश्चारित्रं च यथासम्भवं विज्ञेयम् । धर्मान्तर्भूतः संयम एव चारित्रं नान्यदिति चेत्सत्यं प्रधाननिःश्रेयसकारणत्वख्यापनार्थं पुनस्तस्य पृथग्वचनम् । तपसा संवरो निर्जरा चेत्युक्तम् । तद्विविधम्- बाह्यमाभ्यन्तरं च । तत्र बाह्य विभागतो व्याचष्टे
श्रनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसङ्ख्यान रस परित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः ।। १६ ।।
दृष्टफलानपेक्षमन्तरङ्गतपः सिद्ध्यर्थमभोजनमनशनम् । तदवधृतकालमनवधृतकालं च । संयमप्रजागरणाद्यर्थमेव हीनोदरत्वमाव मौदर्यम् । एकागाररथ्यार्धग्रामादिसंकल्पैः कायचेष्टा वृत्तिपरिसङ्ख्या
इस प्रकार इन कही गयी गुप्ति आदि के द्वारा आसूव का निरोध रूप संवर सिद्ध होता है । उनमें जो साधु गुप्ति के पालन में असमर्थ है वह समितियों में प्रवृत्ति करता है, उन समितियों में प्रवर्त्तन करता हुआ दस धर्म, बारह भावना, परीषह जय और चारित्र इनको यथासम्भव धारण करता है ऐसा जानना चाहिए ।
प्रश्न- - दस धर्मों में संयम आया है उसी में चारित्र अन्तर्भूत है, चारित्र अन्य कुछ नहीं संयम ही है ?
उत्तर- ठीक ही है, किन्तु यहां पर मोक्षका प्रधान कारणत्व बतलाने हेतु चारित्र को पृथक सूत्र में कहा है। तप से संवर और निर्जरा होती है । ऐसा पहले कहा है, वह जो तप है उसके दो प्रकार हैं- बाह्य तप और आभ्यन्तर तप ।
उनमें पहले बाह्य तप का कथन करते हैं—
- सूत्रार्थ – अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त शय्यासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तप हैं ।
इस लोक सम्बन्धी फल की इच्छा नहीं करके अन्तरङ्ग तप की सिद्धि के लिये भोजन नहीं करना अनशन है । यह अवधूतकाल और अनवधृतकाल से दो प्रकार का हैं । अर्थात् एक दिन से लेकर छह मास तक काल की मर्यादा लेकर जो उपवास किये जाते हैं वे सब अवधूतकाल अनशन तप है और जिसमें काल की सीमा नहीं है सल्लेखना के समय यावज्जीव तक चतुराहार का त्याग करना अनवधूतकाल अनशन तप है । संयम सिद्धि हेतु, निद्रा विजय हेतु इत्यादि कारणों से ही केवल भूख से कम खाना अवमौदर्य है ।