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________________ ५२४ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती सम्भवन्ति परीषहा इत्याह एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नं कानविंशतः ॥१७॥ ___ एकस्मिन्नात्मनि युगपदेको वा द्वौ वा त्रयादयो वा भाज्या विकल्प्याः । आ कुतः ? ऐकानविंशतेः । प्राङोऽभिविध्यर्थत्वादेकानविंशतिसम्प्रत्ययो विंशतिरेकान्नति चेत् शीतोष्णयोरेकः । शय्या निषद्याचर्याणामन्यतम एव भवति । प्रज्ञाऽज्ञानयोविरोधादष्टादशप्रसङ्ग इति चेदुच्यते-श्रुतज्ञानापेक्षया प्रज्ञापरीषहः । अवध्याद्यपेक्षयाऽज्ञानपरीषहसहनमिति नास्ति विरोधः । चारित्रप्रतिपत्त्यर्थमाह - प्रश्न-एक आत्मा में एक साथ कितनी परीषह संभव हैं ? उत्तर-इसीको सूत्र द्वारा कहते हैं सूत्रार्थ- एक को आदि लेकर उन्नीस तक परीषह एक आत्मा में एक साथ होती हैं। एक आत्मा में एक साथ एक परीषह अथवा दो अथवा तीन आदि परीषह भजनीय है कहां तक विकल्प है तो उन्नीस तक है ऐसा समझना चाहिए । आङ शब्द अभिविधि अर्थ में है अतः उन्नीस संख्या का भी ग्रहण हो जाता है । विशति में एक कम एकान्नविंशति है । शीत और उष्ण परीषहों में से एक, निषद्या, चर्या और शय्या में से कोई एक इस तरह तीन कम होने से उन्नीस परीषह एक साथ हो सकती हैं । शंका-प्रज्ञा और अज्ञान में विरोध होने से एक साथ अठारह परीषह हो सकती हैं, उन्नीस नहीं ? समाधान-ऐसा नहीं है, एक साथ उन्नीस हो सकती हैं क्योंकि प्रज्ञा परीषह तो श्रुतज्ञानकी अपेक्षा से है और अज्ञान परीषह अवधि ज्ञानादि की अपेक्षा से है अतः कोई विरोध नहीं है। अभिप्राय यह है कि मैं महाप्राज्ञ हूं ऐसा प्रज्ञा का-बुद्धि का मद विशेष श्रुतज्ञान प्राप्त होने से हो जाता है तथा उसी व्यक्ति के अवधिज्ञान आदि नहीं होने से मैं अल्प बुद्धि वाला हूं मुझे लोग मानते नहीं इत्यादि रूप अज्ञान भाव होता है, इस तरह ये दोनों परीषह एक साथ होने में विरोध नहीं आता है । आगे चारित्र के भेद बतलाते हैं
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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