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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
चेन्न - मोहभेदानां परिगणितत्वात् । प्रज्ञा मोहनीयाऽसत्वाद्भवति । पुनरपरयोः परीषहयोः प्रकृतिविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह
दर्शन मोहान्तरायबोरदर्शनालाभौ ।। १४ ।।
दर्शनमोहे सत्यदर्शनं तत्त्वार्थाऽश्रद्धानं न पुनरवध्यादिदर्शनाभावः । तस्याऽज्ञानपरीषहेऽन्तभवात्, तदविनाभावित्वेन स्थितत्वात्, तस्य दर्शनमोहनिमित्तत्वाच्च । तथान्तरायभावे सत्मलाभः । सामर्थ्यालाभान्तराय इति गम्यते । कार्यविशेषस्य कारणविशेषादेव भावात् । श्राह-यद्याद्ये मोहनीयभेदे एकः परीषहः अथ द्वितीयस्मिन् कति सम्भवन्तीत्यत्रोच्यते—
समाधान - मैं महाप्राज्ञ हूं ऐसा भाव मोह से नहीं होता मोह से होने वाले परीषह भेदों को पृथक् गिनाया है । मैं महाप्राज्ञ हूं इस प्रकार का भाव तो प्रमत्त संवर्तादि के भी पाया जाता है अतः प्रज्ञा परीषह को मोह जनित नहीं मान सकते । ( यहां पर मूल में कुछ पाठ त्रुटित प्रतीत होता है | )
अन्य दो परीषहों की कारणभूत प्रकृति विशेष को बताते हैं
सूत्रार्थ - दर्शनमोह के उदय से अदर्शन परीषह होती है और अन्तराय कर्म के उदय से अलाभ परीषह होती है ।
दर्शनमोह के उदय होने पर तत्त्वार्थ का अश्रद्धानरूप अदर्शन परीषह होती है । यहां पर अदर्शन शब्द से अवधिदर्शन आदि दर्शन का अभाव नहीं लेना, अवधिदर्शन आदि के अभावरूप जो अदर्शन है उसका अज्ञान परीषह में अन्तर्भाव होता है, क्योंकि अज्ञान और अदर्शन का अविनाभाव है । अर्थात् जहां अल्पज्ञानरूप अज्ञान है वहां अल्पदर्शनरूप अदर्शन भी अवश्य होता है । किन्तु यहां पर दर्शनमोह के निमित्त से होने वाला अश्रद्धारूप अदर्शन लिया है । तथा अन्तराय के सद्भाव में अलाभ परीषह होती है । अन्तराय शब्द से यहां सामर्थ्य से लाभान्तराय लेना क्योंकि विशेष कारण से ही विशेष कार्य का सद्भाव ज्ञात होता है, अथवा कारण विशेष से ही कार्य विशेष होता है ।
प्रश्न- यदि आदि के दर्शनमोह के निमित्त से एक परीषह होती है तो दूसरे चारित्र मोह के निमित्त से कितनी परीषह सम्भव है ?
उत्तर -- इसी को बताने हेतु आगे सूत्र कहते हैं