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नवमोऽध्यायः
- [ ५२१ सम्भवः । अत्राह-गृहीतमेव परीषहाणां स्थानविशेषावधारणमिदं तु न विद्मः-कस्याः प्रकृतेः कि कार्यमित्यत्रोच्यते
ज्ञानावरणे प्रज्ञाऽज्ञाने ॥ १३ ॥ प्रज्ञा चाऽज्ञानं च ज्ञानावरणे सति सम्भवः । प्रज्ञा कथं ज्ञानावरणे ? तस्यास्तदभाव एव भावादिति चेत्तन्न-अवध्याद्यन्यकेवलज्ञानावरणसद्भावे सति प्रज्ञायाः सम्भवात् । सा मोहादिति
प्रश्न-परीषहों का सद्भाव जिनके पाया जाता है उन स्थान विशेषों को तो ज्ञात कर लिया किन्तु यह ज्ञात नहीं किया कि किस कर्म प्रकृति के निमित्त से कौनसी परीषह होती है ?
उत्तर- अब इसी को बताते हैंसूत्रार्थ- ज्ञानावरण कर्म के उदय से प्रज्ञा और अज्ञान परीषह होती है । प्रज्ञा और अज्ञान परीषह ज्ञानावरण कर्म के होने पर सम्भव है।
प्रश्न-प्रज्ञा ज्ञानावरण के सद्भाव में कैसे सम्भव है ? क्योंकि प्रज्ञा तो ज्ञानावरण के अभाव में होती है ?
उत्तर-ऐसा नहीं कहना । यहां अवधिज्ञानावरण से लेकर केवलज्ञानावरण तक ज्ञानावरण का सद्भाव है, उसके सद्भाव में क्षायोपशमिकी प्रज्ञा संभव है। अभिप्राय यह है कि यहां पर प्रज्ञा शब्द से क्षायिकज्ञान नहीं लेकर क्षायोपशमिक ज्ञान लिया है अतः शंकाकार की जो शंका थी कि प्रज्ञा तो ज्ञानावरण के अभाव में होती है उसे ज्ञानावरण के सद्भाव में कैसे माना जाय । सो यह शंका क्षायोपशमिकी प्रज्ञा लेने से दूर हो जाती है। अवधिज्ञानावरण आदि के सद्भाव होने पर क्षयोपशम प्रज्ञा स्वरूप ज्ञान वाले व्यक्ति को मद होता है कि मैं महाप्राज्ञ हूं, मेरे समान कोई दूसरा ज्ञानी नहीं है इत्यादि । - शंका-यदि क्षयोपशमरूप प्रज्ञा को लेना है और उस प्रज्ञा से मैं बड़ा ज्ञानी हं ऐसा मद उत्पन्न होता है ऐसा माना जाय तो ठीक नहीं है क्योंकि मैं ज्ञानी हूं ऐसा मद तो मोह से होता है।