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________________ [ ५१९ तदभिधानात् । सर्वार्थसिद्धस्य सप्तमपृथिवीगमनवत् । व्यक्तिरूपेण तु तदभाव एवानयोरिति सर्वमनवद्यम् । समाविर्भू तकेवलज्ञाने कियन्तः सम्भाव्यन्त इत्याह नवमोऽध्यायः एकादश जिने ॥। ११ ॥ निरस्तघातकचतुष्टये जिने वेदनीयसद्भावात्तदाश्रया एकादशपरीषहाः सन्ति । ज्ञानावरणान्तरायमोहाभावातन्निमित्तैकादशपरीषहाभावात् । तर्हि जिनेन्द्र क्षुधादयोऽपि मा भूवन्मोहरहितस्य वेदनीयस्य तत्र सतोऽपि क्षुधादिजननासमर्थत्वात् । तच्चाप्रसिद्धोदासीनपुरुषवत् । सत्यमेवैतदुपचारेण समाधान - यह कथन ठीक नहीं । शक्तिरूप से परीषहों का उक्त स्थानों में विधान किया है, जैसे - सर्वार्थसिद्धि विमान के देव सातवें नरक तक गमन की शक्ति वाले होते हैं, ऐसा आगम में कथन है, यह कथन केवल उनकी शक्तिमात्र का द्योतक है, वे देव कभी भी नरक तक गमनागमन नहीं करते । ठीक इसी प्रकार सूक्ष्म साम्पराय आदि में चौदह परीषहों का अस्तित्व मात्र है, व्यक्तिरूप से तो वहां पर परीषहों का अभाव ही है ऐसा स्याद्वाद समझना चाहिये, इससे सर्व कथन निर्दोष सिद्ध होता है । प्रश्न - जिनके केवलज्ञान प्रगट हो गया है उन केवलीजिन के कितने परीषह होते हैं ? उत्तर- इसीको अगले सूत्र में कहते हैं— सूत्रार्थ - जिनेन्द्र देव के ग्यारह परीषह होती हैं । चार घातियां कर्मों का नाश करने वाले केवलोजिन के वेदनीय कर्म मौजूद रहता है अतः उसके आश्रय से होने वाली ग्यारह परीषद् जिनेन्द्र के होती हैं । ज्ञानावरण, अन्तराय और मोहनीय का यहां अभाव हो चुका है अतः उन कर्मों के निमित्त से होने वाली ग्यारह परीषह इनके समाप्त होती हैं । शंका- यदि ऐसी बात है तो जिनेन्द्र देव के क्षुधा आदि परीषह भी नहीं होनी चाहिए ? क्योंकि मोहनीय रहित अकेला वेदनीय कर्म रहते हुए भी क्षुधादि को उत्पन्न करने में असमर्थ ही है । जैसे अप्रसिद्ध उदासीन पुरुष असमर्थ रहता है वैसे वेदनीय कर्म मोह के अभाव में क्षुधादि कार्य में असमर्थ है ?
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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