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________________ नवमोऽध्यायः [ ५१७ दंशमशकस्य नाग्न्यस्याऽरते: संविभ्रमविशालायाः स्त्रियश्चर्याया निषद्यायाः शय्याया अाक्रोशस्य वधस्य याचनस्याऽलाभस्य रोगस्य तृणस्पर्शस्य मलस्य सत्कारपुरस्काराग्रहस्य प्रज्ञावलेपस्याऽज्ञानस्याऽदर्शनस्य च प्रव्रज्याद्यनर्थकत्वाऽसमाधानलक्षणस्य सहनं जयो निश्चेतव्यः । एवं परीषहानसङ्कल्प्योपस्थितान्सहमानस्याऽसङ क्लिष्टचेतसो रागादिपरिणामास्रवनिरोधान्महासंवरो जायते। कश्चिदाह'किमिमे परीषहाः सर्वे संसारमहाटवीमतिक्रमितुमभ्युद्यतमभिद्रवन्त्युत कश्चिदस्ति प्रतिविशेषः ?' दंशमशक के काटने की पीड़ा सहना दंशमशक परीषह जय है। नग्नता सम्बन्धी लज्जा आदि को सहना नाग्न्य परीषह जय है। किसी द्रव्य क्षेत्रादि में जो अरति होती है उसको सहना अरति परीषह जय है। विभ्रम हाव भाव वाली स्त्री द्वारा की गयी बाधा को सहना, भावों में मलीनता नहीं आने देना स्त्री परीषह जय है। विहार गमनागमन में जो नंगे पैरों में पीड़ा होती है उसे सहना चर्या परीषह जय है। एक आसन से बैठना कठोर विषम भूमि पर बैठना आदि से होने वाली पीड़ा सहना निषद्या परीषह जय है । शयन में एक करवट से सोना, विषम भूमि पर सोना इत्यादि से होने वाली पीड़ा सहना शय्या परीषह जय है। गाली के वचन सहना आक्रोश परीषह जय है । मारपीट बन्धन और घात को सहना बंध परीषह जय है । याचना नहीं करने से जो बाधा होती है उसको सहना याचना परीषह जय है। आहार आदि का लाभ नहीं होने पर उसे सहना अलाभ परिषह जय है। रोग की वेदना सहना रोग परीषह जय है । तृण, काँटे आदि का कठोर स्पर्श सहना तृण स्पर्श परीषह जय है। शरीर में मैल जम जाता है उसकी बाधा को सहना मल परीषह जय है। सत्कार पुरस्कार के नहीं करने पर उसको सहना सत्कार पुरस्कार परीषह जय है। ज्ञान का गर्व नहीं करना प्रज्ञा परीषह जय है । अज्ञान-कम ज्ञान होने से जो तिरस्कार आदि होता है या अपने आप अज्ञान का जो दुःख होता है उसे सहना अज्ञान परीषह जय है । यह प्रव्रज्या व्यर्थ है इत्यादि असमाधानकारक भाव या अश्रद्धा रूप भाव नहीं होने देना अदर्शन परीषह जय है । इस प्रकार जो बिना संकल्प के स्वतः ही उत्पन्न होने वाले हैं ऐसे इन परीषहों को जो मुनि असंक्लिष्ट मन से सहता है उसके राग आदि भावासवों का निरोध होने से महान् संवर होता है । प्रश्न-संसाररूपी महान भयंकर वन से जो निकलना चाहता है ऐसे मुनि के ये सभी परीषह होती हैं अथवा इनमें कुछ विशेषता है ?
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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