SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 560
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नवमोऽध्यायः [ ५१५ शरीरेन्द्रियविषयभोगादेभंगुरत्वमनित्यत्वम् । संसारदु खोपद्रुतस्य शरणाभावोऽशरणत्वम् । स्वोपात्तकर्मवशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसारः । दुःखानुभवनं प्रत्यसहायत्वमेकत्वम् । शरीरादपि जीवस्य व्यतिरेकोऽन्यत्वम् । शरीरस्याऽशुचिकारणकार्यस्वभावत्वमशुचित्वम् । प्रास्रवसंवरनिर्जरालोकाः पूर्वमेवोक्तार्थाः । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां ज्ञप्तिरनुष्ठानं च बोधिः। तद्योग्यत्रसभावादिकृछप्राप्तिबोधिदुर्लभत्वम् । सर्वज्ञवीतरागैर्धर्मस्य शोभनाख्यानं धर्मस्वाख्यातत्वम् । एतेषां प्रत्येकमनुचिन्तनं भावनमनुप्रक्षा द्वादश भवन्ति । परीषहजयप्रतिपत्त्यर्थमाह- . मार्गाऽच्यवननिर्जराथ परिसोढव्याः परीषहाः ॥८॥ . 7. शरीर, इन्द्रियां, विषय भोग आदि पदार्थ नष्ट होने वाले हैं इत्यादि रूप से विचार करना अनित्य अनुप्रेक्षा है । संसारी प्राणी संसार के दुःखों से पीड़ित हैं उनका कोई भी शरणभूत नहीं है इत्यादि चिन्तन करना अशरण भावना है। अपने कर्म के निमित्त से आत्मा के भवान्तर की प्राप्ति होना संसार है। दुःखों के अनुभव करने में मैं अकेला हूं, दूसरा कोई सहायक नहीं है ऐसी भावना करना एकत्वानुप्रेक्षा है। इस जीव का शरीर से भी पृथक्पना है इत्यादि विचारना अन्यत्व भावना है। शरीर स्वयं अशुचि है अशुचि से ही इसका निर्माण हुआ तथा अशुचि को पैदा करता है इत्यादिरूपं शरीर के स्वभाव का चिन्तन करना अशुचि भावना है। आसव, संवर, निर्जरा और लोक शब्दों का अर्थ या लक्षण पहले कहा गया है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की ज्ञप्ति होना अनुष्ठान करना बोधि कही जाती है । उस रत्नत्रय की प्राप्ति जिस पर्याय में मिलती है उनके योग्य त्रस, पर्याप्तकत्व आदि स्वभावों की प्राप्ति बड़ी कठिनाई से होती है इत्यादि विचार करना बोधि दुर्लभ भावना है। सर्वज्ञ वीतराग द्वारा धर्म का अत्यन्त शोभन व्याख्यान हुआ है इत्यादि विचारना धर्म भावना है, इसको धर्म स्वाख्यातत्त्व कहा है, 'सु-शोभनं आख्यातत्त्वं-स्वाख्यातत्त्वं, धर्मस्य स्वाख्यातत्त्वं धर्म स्वाख्यातत्त्वं 'ऐसी धर्मस्वाख्यातत्त्व पद का समास्तर्थ है। इस तरह एक-एक विषय के चिन्तन से ये सब बारह अनुप्रेक्षायें हो जाती हैं। परीषह जय को बतलाते हैं - सूत्रार्थ मार्ग से च्युत न होने के लिये और निर्जरा के लिये परीषह सहन करनी चाहिए।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy