________________
५१४ ]
सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती धर्मोपबृहणार्थ समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणीन्द्रियपरिहारः संयमः । कर्मक्षयार्थमागमाविरोधेन तप्यत इति तपः। तदुत्तरत्र वक्ष्यमाणद्वादशविकल्पमबसेयम् । संयमयोग्यज्ञानादिप्रदानं परिग्रहनिवृत्तिर्वा त्यागः । उपात्तेष्वपि शरीरादिषु संस्कारापोहनं नैर्मल्यं वाकिंचन्यम् । अब्रह्मनिवृत्तिनिर तचारब्राह्मपर्यम् । प्रत्येकमुत्तमविशेषणं क्षमादीनां दृष्टप्रयोजनापेक्षक्षमादेस्तदाभासत्वज्ञापनार्थम् । तान्येतानि दशापि धर्म इत्याख्यायते । अनुप्रक्षानिर्देशार्थमाह
अनित्याशरणसंसारकत्वाऽन्यत्वाऽशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधि
दुर्लभधर्मस्वाख्यातत्वाऽनुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥७॥
शिक्षण देने के लिये बहुत भी बोलता है। इस प्रकार भाषा समिति और सत्य धर्म इन दोनों में अन्तर है, भाषा समिति का पालक अल्प बोलता है और सत्य धर्म का पालक बहुत बोलता है किन्तु सत्पुरुषों के साथ ही केवल बोलता है अन्य के साथ नहीं।
धर्मों को बढ़ाने हेतु समिति में प्रवृत्त यति के जो प्रामी पीड़ा का परिहार और इन्द्रिय निरोध किया जाता है वह उनका संयम धर्म है। कर्मों का क्षय करने हेतु जो तपा जाता है वह तप है । उसके आगे कहे जाने वाले बारह भेद हैं। संयम के योग्य ज्ञानादि के उपकरणों को प्रदान करना त्याग कहलाता है अथवा परिग्रह की निवृत्ति त्याग है । प्राप्त हुए निकटवर्ती शरीर आदि का संस्कार नहीं करना अथवा निर्मलता (मनकी निर्मलता) आकिञ्चन्य धर्म है । अब्रह्म से दूर रहना या निरतिचार ब्रह्मचर्य पालना ब्रह्मचर्य धर्म है । क्षमा आदि प्रत्येक धर्म के साथ उत्तम विशेषण जोड़ना । यह विशेषण इस बात का द्योतक है कि यदि ख्याति आदि के लिये क्षमा आदि को धारण किया जाता है तो वह क्षमादि धर्म नहीं कहलाता है वह झूठी या नकली क्षमा आदि कहलायेगी ऐसे क्षमा आदि आभासों से कर्मों का संवर भी नहीं होगा।
इस तरह क्षमा आदि दस के दस 'धर्म' इस नाम से कहे जाते हैं । अब अनुप्रेक्षा का कथन करते हैं
सत्रार्थ-अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म इन विषयों में बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा कहलाती है।