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तथा स्वभावान्तरपरिणामात्मकत्वान्मणिमुक्ताफलादिवदात्मनो मलक्षयोपि स्वहेतुरभ्युपक शक्यत एव । तथा पृथिव्यादितत्सहेतुकत्वात्तदहर्जातबालकस्तनेहातो रक्षाव्यापारदर्शनाद्भवान्तरस्मृतेश्च पृथिव्यादिभूतेभ्योऽर्थान्तरभूतो जीवः प्रकृतिज्ञः कथंचिन्नित्यः सर्वथास्तीत्यभ्युपगन्तव्यम् । तथा प्रत्यक्षादिप्रमाणोपपन्नत्वेन स्वयं प्रतीयमानजन्ममृत्युसुखदुःखादिविवर्तैर्जगतो वैचित्र्यदर्शनात्कथमशेषभेदसंवेदनमविद्यारूपं स्यात् ? येन वेदान्तवादिनां ब्रह्मद्वैतदर्शनं जगतो भेददर्शनलक्षणाविद्याविनाशहेतुत्वेन मुक्तिहेतुर्भवेत् । तथा सौगतानां सर्वथा सर्वशून्यतावादोऽपि न घटतेशून्यं तत्त्वमहं वादी प्रमाणबलेन साधयामीति वचनविरोधप्रसङ्गात् । ततः सिद्धमेतत् - प्रमाणोपपन्नस्यात्मनः सम्यग्दर्शन
प्रथमोऽध्यायः
कालुष्य है वह अपने हेतु रूप जो रत्नत्रयादि हैं उनके द्वारा दूर किया जाता है । इसप्रकार जैमिनी की मान्यता बाधित हुई ।
बृहस्पति को गुरु मानने वाले बार्हस्पत्य चार्वाक का कहना था कि आत्मा ही नहीं है तो मोक्ष किसके होगा इत्यादि यह सर्वथा असत् है । आप पृथिवी आदि भूत चतुष्टय रूप जीव को मानते हैं किन्तु वास्तव में वह भूत चतुष्टय शरीर रूप है उस शरीर में रहने वाला जीव एक पृथक् ही तत्त्व है, देखिये ! तत्काल का जन्मा बालक स्तनपान की इच्छा करता है यदि वह जन्मान्तर के संस्कार से युक्त नहीं होता ( शरीर रूप जड़ होता ) तो स्तनपान के संस्कार कैसे होते ? छोटा सा बालक भी अपनी रक्षा में प्रयत्नशील देखा जाता है अर्थात् कहीं गिरने आदि स्थान से डरता है धीरे से पग धरता है इत्यादि संस्कार कहां से आये ? ( "रक्षा व्यापार दर्शनात् " ) इस वाक्य का यह अर्थ भी है कि राक्षस - व्यन्तर आदिक सहायता आदि रूप कार्य करते देखे जाते हैं, वे पूर्व जन्म के स्नेहवश ही तो उक्त कार्य करते हैं ? यदि शरीर के साथ आत्मा नष्ट होता तो व्यन्तर कैसे बनता और उसे सहायता की स्मृति कैसे होती ? जगत् में ऐसे जीव भी देखे जाते हैं कि उन्हें अपने पहले भव को स्मृति आती है कि मैं अमुक नगर में अमुक व्यक्ति का पुत्र था इत्यादि, इन सब हेतुओं से यह सर्वथा सिद्ध होता है कि जीव पृथिवी आदि भूतों से पृथक् पदार्थ है वह प्रकृतिज्ञ है और कथंचित् नित्य है । वेदान्तवादी ने कहा कि भेदों का ज्ञान कराने वाली अविद्या है उसका नाश होने से मोक्ष होता है इत्यादि सो यह कथन अयुक्त है, जन्म, मरण, सुख, दु:ख आदि विवर्त्त प्रत्यक्षादि प्रमाणों से प्रतीत हो रहे हैं उनसे जगत् की विचित्रता प्रत्यक्ष दिखाई दे रही है अतः भेदों का ज्ञान अविद्या-असत्य कैंसे हो