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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ ___तथा यदि निःशङ्कात्मप्रवृत्तिर्मोक्षहेतुरिष्यते तदा कौलानामिव तत्सम्भवात् बकादीनामपि मोक्षप्रसङ्गः स्यात् । तथा प्रकृतिपुरुषयोळक्त तर योनित्यव्यापिस्वभावयोः कथं वियोगः समुपलभ्येत ? येन तद्वियोगदर्शनं मोक्षहेतुत्वेन साङ्खयानां घटेत । तथा चेतसि नैरात्म्यादिप्रतिभासभावनामात्रादेव मोक्षाभ्युपगमे सौगतेभ्योऽतितरां विप्रयुक्तकामिनां मोक्षप्रसङ्गः स्यात् स्फुटतरभावनासम्भवात् । तदुक्तम्
पिहिते कारागारे तमसि च सूचीमुखाग्रनिर्भये । मयि च निमीलितनयने तथापि कान्ताननं व्यक्तम् ।। इति ।
दोनों नित्य व्यापक हैं तब उनका भेद ज्ञान अर्थात् प्रकृति भिन्न है और पुरुष भिन्न है ऐसा बोध कैसे सम्भव है ? अतः सांख्याभिमत मोक्ष लक्षण भी घटित नहीं होता है ।
बौद्धों ने नैरात्म्य भावना से मोक्ष स्वीकार किया है किन्तु मनमें नैरात्म्य की प्रतिभा रूप भावना मात्र से मोक्ष स्वीकार करने वाले सौगत को तो स्त्री वियोगी पुरुषों के भी मोक्ष स्वीकार करना पड़ेगा ? क्योंकि उनके भी वैसी स्पष्ट रूप से भावना होती है, कहा है कि कारागृह का द्वार बंद था अन्धकार तो इतना था कि सुई से भी नहीं भेदा जाता था फिर मेरे नेत्र भी ढके थे इतने पर भी मुझे अपनी स्त्री का मुख स्पष्ट दिखाई दिया ॥ १ ॥ इस कारिका का भाव यह है कि कोई पुरुष जेल में था उसको रात्रि के समय अपनी स्त्री की याद आई उस भाव में वह इतना मग्न हुआ कि उसे स्त्री का मुख दिखाई दिया। यहां पर सौगत के मोक्ष स्वरूप का निरसन करते हुए जैन ने कहा कि यदि भावना ज्ञान मात्र से मुक्ति संभव है तो स्त्री आदि की भावना करने वाले पुरुष के मुक्ति होने का प्रसंग आता है जो सबको अनिष्ट है । अतः बौद्धाभिमत मोक्ष स्वरूप खण्डित हो जाता है ।
जैमिनी का कहना था कि आत्मा के कभी मुक्ति हो नहीं सकती, जैसे कोयले की कालिमा स्वाभाविक होने से नष्ट नहीं होती वैसे आत्मा के रागादि कालिमा नष्ट नहीं होती इत्यादि, सो इस पर हम जैन का कहना है कि आत्मा के स्वभाव से स्वभावान्तर रूप परिणमन होता है जैसे मणि मुक्ता सुवर्ण आदि स्वभावान्तर से परिणमन करते हैं, जैसे खदान से निकले मणि आदि कीट कालिमा युक्त होने पर भी प्रयोग विशेष से उनकी उक्त कालिमा दूर की जाती है, वैसे आत्मा के जो रागादि