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प्रथमोऽध्यायः
ज्ञानहीने क्रिया पुसि परं नारभते फलम् । तरोश्छायेव किं लभ्या फलश्रीनष्टदृष्टिभिः ।। ज्ञानं पङ्गौ क्रिया चान्धे निःश्रद्धे नार्थकृवयम् ।
ततो ज्ञानक्रियाश्रद्धात्रयं तत्पदकारणम् ।। अन्यच्चोक्तम्
हतं ज्ञानं क्रियाशून्यं हता चाज्ञानिनः क्रिया । धावन्नप्यन्धको नष्टः पश्यन्नपि च पङ गुकः ।। इति ।।
और जो कालकाचार्य का कहना था कि भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार नहीं करना इत्यादि से मोक्ष होता है सो इस तरह निःशंक-स्वैर प्रवृत्ति को मोक्ष का हेतु माना जाता है तो आप कौल मतवाले के समान बगुला आदि जीवों के भी मोक्ष हो जाना चाहिये ? क्योंकि वे जीव भी आप सदृश स्वैर प्रवृत्ति करते हैं ?
सांख्य ने प्रकृति और पुरुष में विवेक ज्ञान होने से मोक्ष होना स्वीकार किया है, किन्तु नित्य व्यापक स्वभाव वाले तथा व्यक्त और अव्यक्त रूप प्रकृति और पुरुष में वियोग-विवेक किस प्रकार सम्भव है ? जिससे कि उनका विवेक ज्ञान हो और उससे मोक्ष होना स्वीकार किया जाय ?
विशेषार्थ-यहां पर विविध मतों में जो मुक्ति के कारण माने हैं उनका खण्डन किया जा रहा है । श्रद्धा मात्र से मुक्ति मानने वाले सैद्धान्त वैशेषिक हैं, उनको जैन ने समझाया है कि श्रद्धा मात्र से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता, क्या फलों को खाने की इच्छा या श्रद्धा मात्र से फल पक जाते हैं ? नहीं। मन्त्र दीक्षा ग्रहण मात्र से भी मुक्ति संभव नहीं है यदि इतने मात्र से मुक्ति होवे तो दीक्षा के अनन्तर ही मुक्ति होनी चाहिये किन्तु नहीं होती। ज्ञान मात्र से मुक्ति की कल्पना भी व्यर्थ है, क्या जल के ज्ञान मात्र से प्यास नष्ट होती है ? कौल मत तो निरा अघोरी है जिनकी कि मान्यता है, एक पात्र में अन्न और मल रखा हो तो दोनों की घृणा न करके खा जाना चाहिये इत्यादि। ऐसी अघोर प्रवृत्ति मोक्ष की हेतु कथमपि नहीं हो सकती। सांख्य ने प्रकृति और पुरुष ये मुख्य दो तत्त्व माने हैं तथा प्रकृति के महान आदि चौबीस भेद माने हैं। उनमें प्रकृति और पुरुष दोनों को ही नित्य व्यापक माना है । आचार्य ने समझाया कि जब प्रकृति पुरुष