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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
बुद्धिमनोऽहङ्कारविरहादखिले न्द्रियोपशमावशात्तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानं मुक्तिरिति कापिलाः । यथा घटविघटने घटाकाशमाकाशीभवेत्तथा देहोच्छेदात्सर्व: प्राणी परे ब्रह्मरिण लीयत इति ब्रह्माद्वैतवादिनः । एवमज्ञातपरमार्थानां मिथ्यादृशामेतेऽन्येऽपि दुर्णया बहवः सन्ति । ते च युक्तया विचार्यमारणा यथार्थतया न व्यवतिष्ठन्ते । तथा हि
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न तावत्केवलं श्रद्धामात्रं श्र ेयोर्थिनां श्र ेयः संश्रयाय भवति । यथा न बुभुक्षितवशादुदुम्बराणां पाको जायते । नापि पात्रावेशादिवन्मन्त्रतन्त्राभ्यासादात्मदोषप्रक्षयो भवति, संयमानुष्ठानक्लेशवैयर्थ्यप्रसङ्गात् । तथा न दीक्षामात्रमेव मुक्तः कारणं भवितुमर्हति, संसारसमुद्भूतपूर्वदोषारणां पुसो दीक्षाक्षणान्तरे पश्चादप्युपलम्भसम्भवात् । नाप्यर्थपरिज्ञानमात्रं क्रियाश्रद्धानरहितं विवक्षित कार्यकारि स्याल्लोकेऽपि हि न पयः परिज्ञानमेव तर्षापकर्षकारि दृष्टमिष्ट वा शिष्टैरिति । तथा चोक्तम्
खाने की इच्छा मात्र होने से उदम्बर फलों का पकना नहीं होता है । इसी प्रकार पात्र लेना, वेष ग्रहण करना, मन्त्र तन्त्र के अभ्यास मात्र से आत्मा के रागादिदोषों का क्षय नहीं होता, अन्यथा संयम पालन का क्लेश व्यर्थ ठहरेगा, अर्थात् वेष और मन्त्र तन्त्र से मुक्ति होवे तो चारित्र पालन का कष्ट उठाना व्यर्थ है [ किन्तु ऐसा है नहीं ] तथा दीक्षा मात्र ही मुक्ति का कारण नहीं है, क्योंकि दीक्षा लेने के पश्चात् भी संसार में उत्पन्न हुए पूर्व दोषों का सद्भाव पाया जाता है । तार्किक वैशेषिक का ज्ञान मात्र से मोक्ष मानना भी असिद्ध है, क्योंकि श्रद्धा और क्रिया से रहित कोरा अर्थ ज्ञान विवक्षित कार्य को करता हुआ देखा नहीं जाता, लोक में भी देखा जाता है कि यह जल है इस प्रकार के जल के परिज्ञान मात्र से प्यास का नाश नहीं होता, न ऐसा शिष्ट पुरुषों द्वारा माना ही जाता है । कहा भी है- ज्ञान विहीन पुरुष की क्रिया फलदायक नहीं होती, जैसे नेत्र विहीन पुरुष वृक्ष की छाया के समान क्या उसके फलों को प्राप्त कर सकते हैं ? नहीं कर सकते । पंगु पुरुष में ज्ञान, अन्ध पुरुष में क्रिया और श्रद्धा रहित पुरुष में ज्ञान एवं क्रिया कार्यकारी नहीं होती है, इसलिये ज्ञान क्रिया [ चारित्र ] और श्रद्धा ये तीनों मिलकर ही उस कार्य की सिद्धि में अथवा मोक्ष पद में कारण हैं ।। १ ।। २ ।। अन्यत्र भी कहा है- क्रियारहित ज्ञान व्यर्थ है, और अज्ञानी की क्रिया भी व्यर्थ है, देखो ! जलते हुए वन में दौड़ता हुआ भी अन्धा पुरुष नष्ट हो जाता है और पंगु पुरुष देखते हुए भी नष्ट हो जाता है [ क्योंकि अंधे को ज्ञान नहीं है कि किधर दौड़ना है और पंगु जानते हुए भी पैर के अभाव में दौड़ नहीं इसी तरह ज्ञान या क्रिया मात्र से मोक्ष नहीं होता । ]
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