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प्रथमोऽध्यायः
बहिः शरीराद्यद्रूपमात्मनः सम्प्रतीयते । उक्त तदेव मुक्तस्य मुनिना करणभोजिना ॥ इति ॥
निरास्रवचित्तोत्पत्तिर्मोक्ष इति ताथागताः । तदुक्तम्दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चिवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतः
स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ॥ १ ॥ दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चि
नवानि गच्छति नान्तरिक्षम् । जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतः
क्लेशक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ।। इति ॥ २ ॥
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निरासून चित्त की उत्पत्ति होना अर्थात् जन्म जन्म में जीव की जो संतान चली थी वह रुक जाना मोक्ष है ऐसा ताथागत का कहना है । इस विषय में कहा है किजैसे तेल के समाप्त होने पर अभाव को प्राप्त हुआ दीपक न किसी दिशा में जाता है. न विदिशा में जाता है, न भूमि में जाता है और न आकाश में जाता है, केवल शान्त ||१|| वैसे ही यह जीव क्लेश के नष्ट होने पर निर्वृति [ अभाव ] को प्राप्त. हुआ दिशा में जाता है न विदिशा में जाता है न भूमि में जाता है और न आकाश में जाता है मात्र शान्त हो जाता है ||२||
बुद्धि मन और अहंकार का अभाव होने पर संपूर्ण इन्द्रियां उपशमित होती हैं उस वक्त दृष्टा आत्मा का अपने स्वरूप में स्थित होना मोक्ष है ऐसा कापिल कहते हैं । जैसे घट के नष्ट होने पर घटाकाश आकाश में लीन होता है वैसे ही शरीर का नाश होने पर सर्व प्राणी परमब्रह्म में लीन होते हैं ऐसा ब्रह्माद्वैत वादी कहते हैं ।
इस प्रकार परमार्थ को नहीं जानने वाले मिथ्यादृष्टियों के ये मत हैं इसी तरह अन्य बहुत से कुमत हैं, वे सभी मत युक्ति से विचार करने पर यथार्थ रूप सिद्ध नहीं होते हैं । अब आगे उपर्युक्त मतों का निराकरण किया जाता है—
सर्वप्रथम सैद्धान्त वैशेषिक ने जो कहा था कि श्रद्धा मात्र से मोक्ष होता है वह ठीक नहीं है कल्याण के इच्छुक पुरुषों के श्रद्धामात्र से कल्याण नहीं होता है, जैसे कि