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________________ ५०८ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती दुवं तद्भावाग्निरोधः प्रत्येतव्यः । किं पुनस्तत्? असद्वेद्याऽरतिशोकाऽस्थिराऽशुभाऽयशस्कीतिविकल्पम् । देवायुबन्धारम्भस्य प्रमाद एव हेतुरप्रमादोऽपि तत्प्रत्यासन्नः । तत ऊवं तस्य संवरः । कषाय एवास्रवो यस्य कर्मणो न प्रमादादिस्तस्य तन्निरोधे निरासोऽवसेयः स च कषाय- प्रमादविरहितस्तीव्रमन्दजघन्यभावेन त्रिषु गुणस्थानेषु व्यवस्थितः । तत्राऽपूर्वकरणस्यादौ संखय यभागेद्वे कर्मप्रकृती निद्राप्रचले बध्येते। तत ऊर्व सङ्खययभागे त्रिंशत्प्रकृतयो देवगतिपचेन्द्रियजातिवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणशरीरसमचतुरश्रसंस्थान वैक्रियिकाहारकांगोपांगवर्णरसगन्धस्पर्शदेवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्याऽगुरुलघूपघातपरघातीच्छ्वासप्रशस्तविहायोगतित्रसबादरपर्याप्तकप्रत्येकशरीरस्थिरशुभसुभगसुस्वरादेयनिर्माणतीर्थकराख्या बध्यन्ते । तस्यैव चरमसमये चतस्रः प्रकृतयो हास्यरतिभयजुगुप्सासंज्ञा बन्धमुपयान्ति । ता एतास्त्रीवकषायास्रवाः । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से आगे उन कर्मोंका संवर होता है, वे कर्म कौन से हैं ऐसा पूछो तो बताते हैं कि-असाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशस्कीत्ति । देवायु के बन्ध का प्रारम्भ प्रमाद के कारण होता है तथा उसका निकटवर्ती सप्तम गुणस्थान वाला अप्रमत्तसंयत भी देवायु को बांधता है। उसके आगे उस कर्म का संवर होता है । जिन कर्मों के आस्रव कषाय ही है प्रमाद आदि नहीं हैं, उनका कषाय के निरोध होने पर संवर होता है, प्रमाद रहित कषाय तीव्र मन्द और जघन्य भाव से तीन गुणस्थानों में व्यवस्थित है, उनमें भी अपूर्वकरण नामके गुणस्थान में संख्यात भाग तक निद्रा प्रचला बंधती है, उससे आगे संख्यातवें भाग तक तीस प्रकृतियां बन्धती हैं देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक और आहारक अंगोपांग, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, और तीर्थंकर । उसी गुणस्थान के चरम समय तक चार प्रकृतियां हास्य, रति, भय और जुगुप्सा बन्धती हैं । ये सब तीव्र कषाय निमित्तक हैं, इस कषाय के अभाव में कहे गये अपने अपने भागों के आगे उन उन प्रकृतियों का संवर हो जाता है (यहां पर कषाय के तीन भेद करके आठवें नौवें और दसवें गुणस्थान में क्रमशः उनका अस्तित्व बताया है अर्थात् आठवें अपूर्वकरण में तीव्र कषाय, नौवें में मन्द और दसवें में जघन्य कषाय बतायी है, ये सर्व कषाय संज्वलन रूप मात्र हैं तथा आगे आगे अत्यन्त मन्दरूप हैं फिर भी उनको यहां तीव्र मन्द और जघन्य नाम से कहा है वह केवल दसवें से नौवें में और नौवें से आठवें गुणस्थान में संज्वलन कषाय की आंशिक अधिकता बताने हेतु कहा है । वास्तव में श्रेणि में कषाय
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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