________________
नवमोऽध्यायः
[ ५०९ तदभावानिर्दिष्टाद्भागादूर्ध्वं संव्रियन्ते । अनिवृत्तिबादरसाम्परायस्यादिसमयादारभ्य सङ्घय येषु भागेषु पुवेदक्रोधसंज्वलनौ बध्येते । तत ऊवं शेषेषु सङ्खच येषु भागेषु मानसंज्वलनमायासंज्वलनौ बन्धमुपगच्छतः। तस्यैव चरमसमये लोभसंज्वलनो बन्धमेति । ता एताः प्रकृतयो मध्यमकषायास्रवाः । तदभावे निर्दिष्टस्य भागस्योपरिष्टात्संवरमाप्नुवन्ति । पञ्चानां ज्ञानावरणानां चतुर्णा दर्शनावरणानां यशस्कीर्तेरुच्चैर्गोत्रस्य पञ्चानामान्तरायाणां च मन्दकषायास्रवाणां सूक्ष्मसाम्पसयो बन्धकः । तदभावादुत्तरत्र तेषां संवरः । केवलेनैव योगेन सद्वेद्यस्योपशान्तकषायक्षीणकषायसयोगानां बन्धो भवति । सदभावादयोगकेवलिनस्तस्य संवरो भवति । उक्तः संवरः । तद्धेतुप्रतिपत्त्यर्थमाह
स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः ॥२॥
अत्यन्त हीन अनुभाग युक्त एवं अबुद्धिपूर्वक होती है) अनिवृत्ति बादर साम्पराय गुणस्थान के प्रारम्भ से लेकर संख्येय भाग तक पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध बन्धता है, उससे आगे संख्यात भागों तक मान और माया संज्वलन बंधता है। उसी के चरम समय पर्यंत लोभ संज्वलन बंधता है, ये पांच प्रकृतियां मध्यम कषाय निमित्तक हैं, इस कषाय के अभाव में आगे आगे के बताये गये भागों में उस उसका संवर होता जाता है। अनिवत्तिकरण नामके नौवें गुणस्थान के बंधकी व्युच्छित्ति की अपेक्षा पांच भाग हैं पहले भाग में पुरुषवेद व्युच्छिन्न होता है आगे क्रमशः क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न होता है। पांच ज्ञानावरण, पांच अंतराय, चार दर्शनावरण, यशस्कीत्ति और उच्चगोत्र ये सोलह प्रकृतियां मंद-जघन्य कषाय के कारण आस्रवित होती हैं। इनका बंधक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान वाला है, (अर्थात् ये दसवें गुणस्थान तक बंधती हैं) जघन्य कषाय के अभाव होने पर इन प्रकृतियों का संवर हो जाता है। केवल योग मात्र से साता वेदनीय कर्म का आस्रव होता है ( ईर्यापथ आस्रव होता है ) योग रूप आसव ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान वाले उपशांतकषाय, क्षीणकषाय और सयोगी तक है। योग के अभाव में अयोगकेवली के उसका संवर हो जाता है। इस प्रकार संवर कहा।
अब संवर का हेतु कौन है यह बतलाते हैं
सूत्रा-वह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र द्वारा होता है।