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________________ नवमोऽध्यायः [ ५०७ ग्यानुपूर्व्याऽऽतपस्थावरसूक्ष्मापर्याप्तकसाधारणसंज्ञकषोडशप्रकृतिलक्षणम् । असंयमस्त्रिविधः-अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानोदयविकल्पात् । तत्प्रत्ययस्य कर्मणस्तदभावे संवरोऽवसेयः । तद्यथा-निद्रानिद्रा प्रचलाप्रथला स्त्यानगृद्धयनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभस्त्रीवेदतिर्यगायुस्तिर्यग्गतिचतुःसंस्थानचतुःसंहननतिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्योद्योताऽप्रशस्तविहायोगतिदुर्भगदुस्स्वरानादेयनीचैर्गोत्रसंज्ञकानां पंचविशतिप्रकृतीनामनन्तानुबन्धिकषायोदयकृताऽसंयमप्रधानास्रवाणामेकेन्द्रियादयः सासादनसम्यग्दृष्टयन्ता बन्धकाः। तदभावे तासामुत्तरत्र संवरः। अप्रत्याख्यानावरणक्रोधमानमायालोभमनुष्यायुर्मनुष्यगत्योदारिकशरीरतदङ्गोपाङ्गववर्षभनाराचसंहननमनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम्नां दशानां प्रकृतीनामप्रत्याख्यानकषायोदयकृताऽसंयमहेतूनामेकेन्द्रियादयोऽसंयतसम्यग्दृष्टयन्ता बन्धकाः । तदभावादूध्वं तासां संवरः। सम्यङि मथ्यात्वगुणेनायुर्न बध्यते । प्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभानां चतसृणां प्रकृतीनां प्रत्याख्यानकषायोदयकारणाऽसंयमास्रवाणामेकेन्द्रियप्रभृतयः संयताऽसंयताऽवसाना बन्धकाः । तदभावा दुपरिष्टात्तासां संवरः । प्रमादोपनीतस्य तद्भावे तस्य निरोधः । प्रमादेनोपनीतस्य कर्मणः प्रमत्तसंयताअपर्याप्त, साधारण ये सोलह प्रकृतियां पहले गुणस्थान में व्युच्छिन्न होती हैं । असयम तीन प्रकार का है-अनन्तानुबन्धी के उदय से जनित, अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से जनित और प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से जनित । उस उस असंयमरूप कारण से होने वाला कर्म उस उस असंयम के अभाव में रुक जाता है। जैसे-निद्रा निद्रा, प्रचला प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्री वेद, तिर्यंचायू, तियंचगति, बीच के चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीच गोत्र ये पच्चीस प्रकृतियां अनंतानुबंधी कषायों के उदय से उत्पन्न हुए असंयम के कारण एकेन्द्रिय से लेकर सासादन गुणस्थान तक बन्धती हैं, और उस असंयम के अभाव होने पर आगे उन प्रकृतियों का संवर हो जाता है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, उसका अंगोपांग, वज्रवृषभनाराच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी ये दस प्रकृतियां अप्रत्याख्यान कषाय के उदय से उत्पन्न हुए असंयम के कारण एकेन्द्रिय से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि नामके चौथे गुणस्थान तक बन्धती है और उस असंयम के अभाव होने पर आगे उनका संवर हो जाता है। सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिश्र परिणाम से आयु नहीं बंधती। प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कर्म प्रकृतियां प्रत्याख्यान कषाय के उदय से उत्पन्न हुए असंयम के कारण एकेन्द्रिय से लेकर संयतासंयत नामके पांचवें गुणस्थान तक बन्धती हैं और उसके अभाव होने पर आगे उन प्रकृतियों का संवर हो जाता है । प्रमाद के कारण बंधे हुए कर्म प्रमाद के अभाव होने पर रुक जाते हैं अर्थात
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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