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अथ नवमोऽध्यायः
बन्धपदार्थो निर्दिष्टः । सांप्रतं तदनन्तरोद्द शभाजः संवरस्य निर्देशः प्राप्तकाल इत्यत आहआस्रवनिरोधः संवरः ॥ १ ॥
द्रव्यभावरूप श्रास्रवो द्विधोक्तः । संव्रियते येनार्थोऽसौ संवरः । तत्र संसारनिमित्त क्रियानिवृत्तिर्भावसंवरः । तन्निमित्ततत्पूर्वं ककर्मपुद् गलाऽऽदान विच्छेदो द्रव्यसंवरः । इदं तावद्विचार्यते—कस्मिन् गुणस्थाने कस्य संवर इत्यत्रोच्यते - मिथ्यादर्शनकर्मोदयवशीकृत आत्मा मिध्यादृष्टिः । तत्र मिथ्यादर्शनप्राधान्येन यत्कर्मास्रवति तन्निरोधाच्छेषे सासादनसम्यग्दृष्ट्यादौ तत्संवरो भवति । किं पुनस्तन्मिथ्यात्वम् नपुंसकवेदन रकायुर्नरकगत्येकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजा तिहुण्डसंस्थानाऽसंप्राप्तसृपाटिका संहनननरकगतिप्रायो
बन्ध पदार्थ का कथन किया, अब उसके अनन्तर कहा गया जो संवर पदार्थ है'उसके कथन का अवसर है अतः उसके लिये सूत्र कहते हैं
सूत्रार्थ -- आस्रव का रुकना या रोकना संवर कहलाता है । आस्रव के दो भेद द्रव्य भावरूप से कहे थे, जिसके द्वारा वे आस्रव रोके जाते हैं वह संवर है । उसमें संसार के कारणभूत जो क्रियायें हैं उनसे निवृत्त होना भाव संवर है तथा उस संसार के हेतुभूत क्रिया से जो कर्मों का आस्रव हो रहा था उन कर्म पुद्गलों का ग्रहण रुक जाना द्रव्य संवर है ।
प्रश्न - सर्व प्रथम विचार करना है कि किस गुणस्थान में किसका संवर होता है ?
उत्तर - अब इसी को कहते हैं - मिथ्यात्व कर्म के उदय से युक्त आत्मा मिथ्यादृष्टि कहलाता है उस मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यादर्शन की प्रधानता से जो कर्म आता है वह मिथ्यात्व के निरोध होने पर शेष सासादन सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में रुक जाता है, वह कौनसा है तो मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय आदि चार जातियां, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्त सृपाटिका संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर,