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________________ अष्टमोऽध्यायः [ ५०५ नरकगतितिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्यद्वयमुपघाताप्रशस्तविहायोग तिस्थावरसूक्ष्माऽपर्याप्तिसाधारणशरीरास्थिराऽशुभदुर्भगदुः स्वराऽनादेयाऽयशस्कीर्तयश्चेति नामप्रकृतयश्चतुस्त्रिंशत् । असद्वेद्यं नरकायुर्नीचैगॊत्रमित्येवं व्याख्यातः सप्रपंचो बन्धपदार्थोऽवधिमनः पर्यय केवलज्ञानप्रत्यक्षप्रमाण गम्यस्तदुपदिष्टागमादनुमेयः ।। शशधरकरनिकरसता र निस्तलतरलतल मुक्ताफलहा रस्फारतारा निकुरुम्ब बिम्ब निर्मलतरपरमोदार शरीर शुद्ध ध्यानानलोज्ज्वलज्वालाज्वलितघन घातीन्धन सङ्घातसकल विमल केवलालोकितसकललोकालोकस्वभावश्री मत्परमेश्वरजिनपतिमत विततमतिचिदचित्स्वभाव भावाभिधानसाधित स्वभावपरमाराध्यतममहा सैद्धान्तः श्रीजिनचन्द्र भट्टारकस्तच्छिष्य पण्डितश्री भास्करनन्दिविरचित महाशास्त्रतत्वार्थं वृत्ती सुखबोधायां श्रष्टमोऽध्याय समाप्त | अप्रशस्त स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगत्यानृपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्ति, साधारण शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशस्कीत्ति इस तरह नाम कर्मकी चौंतीस प्रकृतियां अशुभ हैं, तथा असातावेदनीय, नरकायु और नीच गोत्र, ये सब बियासी होती हैं । इस प्रकार : विस्तृत रूप से बंध पदार्थ का व्याख्यान किया है । यह बंधपदार्थ अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञानरूप प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा जाना जाता है, और इन अवधिज्ञान आदि के धारक ज्ञानियों द्वारा कहे गये आगम द्वारा अनुमेय होता है, अर्थात् बंध पदार्थ को प्रत्यक्ष ज्ञानी प्रत्यक्षरूप से जानते हैं और श्रुतज्ञानी आगम द्वारा तथा अनुमान द्वारा परोक्षरूप से जानते हैं । जो चन्द्रमा को किरण समूह के समान विस्तीर्ण, तुलना रहित मोतियों के विशाल, हारों के समान एवं तारा समूह के समान शुक्ल निर्मल उदार ऐसे परमौदारिक शरीर के धारक हैं, शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि की उज्ज्वल ज्वाला द्वारा जला दिया है घाती कर्म रूपी ईन्धन समूह को जिन्होंने ऐसे तथा सकल विमल केवलज्ञान द्वारा संपूर्ण लोकालोक के स्वभाव को जानने वाले श्रीमान परमेश्वर जिनपति के मत को जानने में विस्तीर्ण बुद्धि वाले, चेतन अचेतन द्रव्यों को सिद्ध करने वाले परम आराध्य भूत महासिद्धान्त ग्रन्थों के जो ज्ञाता हैं ऐसे श्री जिनचन्द्र भट्टारक हैं उनके शिष्य पंडित श्री भास्करनंदी विरचित सुख बोधा नामवाली महा शास्त्र तत्त्वार्थ सूत्र की टीका में आठवां अध्याय पूर्ण हुआ ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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