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सुखबोधायां तत्वार्थवृत्ती सघशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥ २५ ॥ सुखफलं सद्वेद्यम् । शुभमायुस्त्रिविधं नारकायुर्वजितम् । शुभनाम शुभफलं सप्तत्रिंशद्विकल्पम् । तद्यथा-मनुष्यदेवगती पञ्चेन्द्रियजातिः पञ्च शरीराणि त्रीण्यङ्गोपाङ्गानि समचतुरश्रसंस्थानवज्रर्षभनाराचसंहननप्रशस्तस्पर्शरसगन्धवर्णा मनुष्यदेवगत्यानुपूर्व्य अगुरुलघुपरघातोच्छ्वासातपोद्योतप्रशस्तविहायोगतयस्त्रसबादरपर्याप्तिप्रत्येकशरीर स्थिरशुभसुभगसुस्वरादेययशस्कीर्तयो निर्माणं तीर्थकरनाम चेति । शुभमेकमुच्चैर्गोत्रं संप्रतिपत्तव्यम् । एता द्विचत्वारिंशत्प्रकृतयः पुण्यसंज्ञा वेदितव्याः । इदानीं पापबन्धमाह
___ अतोऽन्यत्पापम् ॥ २६ ॥ उक्तात्पुण्यादवशिष्टं पापं द्वयशीतिभेदं मूलोत्तरप्रकृतिगणनादवगन्तव्यम् । तद्यथा-ज्ञाना. वरणस्य प्रकृतयः पञ्च, दर्शनावरणस्य नव, मोहनीयस्य साध्यपद: षड्विंशतिः, पञ्चान्तरायस्य, नरकगतितिर्यग्गती, चतस्रो जातयः, पंच संस्थानानि, पंच संहननानि, अप्रशस्तवर्णगन्धरसस्पर्शाः,
सूत्रार्थ-साता वेदनीय, शुभआयु, शुभनाम और शुभगोत्र ये पुण्य प्रकृतियाँ हैं । — सूख रूप फल वाला साता वेदनीय कर्म है। शुभ आयु तीन हैं-नारकाय को छोड़कर मनुष्यायु, तिथंचायु और देवायु । शुभरूप फल वाला शुभ नाम कर्म है, उसके सैंतीस भेद हैं-मनुष्यगति, देवगति, पञ्चेन्द्रियगति, पाँच शरीर, तीन अंगोपांग, समचतुरस्र संस्थान, वज्रवृषभनाराच संहनन, प्रशस्त स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशस्कीति, निर्माण और तीर्थंकरत्व, एक उच्च गोत्र । ये सब मिलकर बियालीस पुण्य प्रकृतियाँ जाननी चाहिए।
अब पाप प्रकृतियों को कहते हैं- सूत्रार्थ-पूर्वोक्त पुण्यप्रकृतियों से जो अन्य प्रकृतियां हैं वे पापरूप हैं।
उक्त पुण्य कर्म से अवशिष्ट पाप कर्म हैं उसके बियासी भेद हैं मूलोत्तर प्रकृति के गणना करने से वे भेद हो जाते हैं, उसीको बताते हैं-ज्ञानावरण की प्रकति पांच हैं, दर्शनावरण की नौ, मोहनीय की साध्य पद अर्थात् बन्ध योग्य प्रकृतियां छब्बीस हैं। पांच अन्तराय की तथा नाम कर्म में नरकगति, तिथंचगति, चार एकेन्द्रियादि जातियां, समचतुरस को छोड़कर पांच संस्थान तथा वजवृषभनाराच को छोड़कर पांच संहनन,