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________________ अष्टमोऽध्यायः । [ ५०३ पुद्गला आधीयन्त इत्यनेन निमित्तविशेषनिर्देशः कृतो भवति । सूक्ष्मादिग्रहणं ग्रहणयोग्यपुद्गलस्वभावानुवर्णनार्थम् । ग्रहणयोग्याः पुद्गलाः सूक्ष्मा न स्थूला इति । एकक्षेत्रावगाहवचनं क्षेत्रान्तरनिवृत्त्यर्थम् । स्थिता इति वचनं क्रियान्तरनिवृत्त्यर्थं स्थिता एव न गच्छन्त इति । सर्वात्मप्रदेशेष्विति वचनमाधारनिर्देशान्नैकप्रदेशादिषु कर्मप्रदेशा वर्तन्ते किं तर्हि ऊर्ध्वमधस्तिर्यक्च सर्वेष्वात्मप्रदेशेषु व्याप्य स्थिता इति । अनन्तानन्तप्रदेशवचनं परिमाणान्तरव्यपोहार्थं न संखये या न चासंखय या नाप्यनन्ता इति । ते खलु पुद्गलस्कन्धा अभव्यानन्तगुणा: सिद्धानन्तभागप्रमितप्रदेशा घनांगुलस्यासंखययभागक्षेत्रावगाहिनः । एकद्वित्रिचतु संखय यासंखय यसमयस्थितिकाः पञ्चवर्णपञ्चरसद्विगन्धचतुःस्पर्शभावा अष्ट - विधकर्मप्रकृतियोग्या योगवशादात्मनात्मसास्क्रियन्त इति स एव प्रदेशबन्धः कथ्यते । तत्प्रसिद्धिः पूनस्तदनुरूपकार्यान्यथानुपपत्तेः । पुण्यपापास्रववचनसामर्थ्यात्पुण्यपापबन्धावगतौ सत्यां पूण्यकर्मप्रकतिप्रतिपत्त्यर्थं तावदाहअनन्त हैं। योगविशेष से अर्थात् योग के निमित्त से प्रदेश बन्ध होता है इससे प्रदेश बंध का कारण बताया। सूक्ष्म और एक क्षेत्रावगाह स्थित ये विशेषण कर्म योग्य पुदगलों का स्वभाव बतलाने के लिये दिये हैं । अर्थात् ग्रहण योग्य पुद्गल सूक्ष्म होते हैं स्थूल नहीं, एक क्षेत्रावगाह स्वरूप हैं, अर्थात् क्षेत्रान्तर के पुद्गल प्रदेश ग्रहण में नहीं आते हैं, वे प्रदेश स्थित हैं अर्थात् क्रियान्तर रहित हैं । सर्व आत्म प्रदेशों में आगत कर्म पुद्गल व्याप्त होते हैं इसको बताने हेतु 'सर्वात्म प्रदेशेषु' ऐसा कहा है, अर्थात् इससे आधार बताया है कि आत्मा के एक प्रदेश आदि में कर्म प्रदेश स्थित नहीं होते किन्तु ऊपर नीचे तिरछे रूप से सर्व आत्म प्रदेशों में व्याप्त होकर स्थित होते हैं। ये आगत प्रदेश संख्यात या असंख्यात नहीं हैं किन्तु अनन्तानन्त हैं इसको बताने हेतु 'अनन्तानन्तप्रदेशाः' पदको ग्रहण किया है । वे कर्म प्रदेश (पुद्गल स्कन्ध) अभव्य जीवों से अनन्त गुणे हैं और सिद्ध जीवों के अनन्तवें भाग प्रमाण हैं। घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र में अवगाह वाले हैं। एक, दो, तीन, चार इत्यादि संख्यात और असंख्यात समय तक अवस्थित रहते हैं। उन प्रदेशों में पांच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और चार स्पर्श (स्निग्ध, रूक्ष, शीत, उष्ण) रहते हैं । आठ प्रकार के कर्म प्रकृति के योग्य होते हैं । इनका योग द्वारा आत्मसात् करना प्रदेश बन्ध कहलाता है । इस प्रदेश बन्ध की सिद्धि तो उसके अनुरूप कार्य को देखकर हो जाती है । पुण्यास्रव और पापास्रव को छठे अध्याय में कहा है उसके सामर्थ्य से बंध के भी पुण्य बन्ध और पाप बन्ध ऐसे दो भेद जाने जाते हैं, उनमें अब पुण्य कर्मकी प्रकृतियों की प्रतिपत्ति के लिये सूत्र कहते हैं
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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