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________________ अष्टमोऽध्यायः [ ५०१ वक्तव्यः । तस्मिश्च वक्तव्ये सतीमे निर्देष्टव्याः किंहेतवः ? कदा? कुतः ? किंस्वभावाः ? कस्मिन् ? किंपरिमाणाश्चेति । तदर्थमिदं क्रमेण परिगृहीतप्रश्नापेक्षभेदं सूत्रं प्रणीयते द्वारा असमय में ही नष्ट हो जाना निर्जरा है, पहली निर्जरा का नाम विपाकजा है दूसरी का नाम अविपाकजा है। असंख्यगुण श्रेणि निर्जरा और अवस्थित निर्जरा ऐसे भी दो भेद निर्जरा के हैं। करणपरिणाम द्वारा या सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के अनन्तर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त इत्यादिरूप आगे ग्यारह या दस स्थान बतायेंगे। उस समय प्रतिसमय असंख्यात गुणी असंख्यात गुणीरूप कर्म प्रदेशों का झड़ जाना असंख्यात गुण श्रेणि निर्जरा है, इससे विपरीत लक्षण वाली अवस्थित निर्जरा है। अकाम निर्जरा और सकाम निर्जरा ऐसे भी दो भेद हैं। बिना इच्छा के भूख प्यास आदि को शांत भाव से सहन करते समय मिथ्यादृष्टि के कुछ निर्जरा होती है वह अकाम निर्जरा है, इसमें संकल्पपूर्वक कुछ व्रत नियम, तपश्चरण आदि के भाव नहीं हैं केवल कष्ट को शांति से सहनारूप परिणाम है इसलिये इसे अकाम निर्जरा कहते हैं । सकाम निर्जरा इससे विपरीत स्वरूप है । सविपाकजा अविपाकजा या गुण श्रेणि इत्यादि निर्जरा का विशेष वर्णन लब्धिसार आदि ग्रन्थों में अवलोकनीय है । निर्जरा के अनन्तर टीकाकार ने कर्म प्रकृतियों के घातिया अघातिया इत्यादि भेद किये हैं, इनका भी कुछ विवेचन करते हैं-चार कर्म घातिया हैं, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय, इनके उत्तर भेद-ज्ञानावरण के पांच, दर्शनावरण के नौ, मोहनीय के अट्ठावीस और अन्तराय के पांच कुल मिलाकर सैतालीस घातिया कर्म प्रकृतियां हैं। इसमें देशघाति छब्बीस और सर्वघाति इक्कीस हैं। केवलज्ञानावरण को छोड़कर चार मतिज्ञानावरण आदि, चक्षुदर्शनावरण आदि तीन, पांच अन्तराय की, मोहनीय में संज्वलन कषाय चार, नौ नोकषाय और एक सम्यक्त्व प्रकृति इस तरह कुल छब्बीस कर्म प्रकृतियां हैं । टीकाकार ने सम्यक्त्व प्रकृति को नहीं गिनाया है वह बन्ध की अपेक्षा से नहीं गिनाया है, क्योंकि सम्यक्त्व प्रकृति का बन्ध नहीं होता केवल उदय और सत्ता होती है। सर्वघाती प्रकृतियां-केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, पांच निद्रायें, मोहनीय में अनन्तानुबन्धी आदि बारह कषाय, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) ये इक्कीस प्रकृतियां सर्वघाती हैं, मूल में सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की गणना नहीं की है उसका कारण भी पहले के समान बन्धकी अपेक्षा से है अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति भी बन्ध योग्य नहीं है केवल उदय और सत्तारूप है। पुद्गलविपाकी, जीव
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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