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________________ ५०० ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ जीवस्वरूपप्रतिबन्धित्वात्पारतन्त्रयकरणलक्षणकर्मत्वोपपत्तेः। कथमेवं तेषामघातिकर्मत्वमिति चेत् जीवन्मुक्तिलक्षणपरमार्हन्त्यलक्ष्मीघातित्वाभावादिति ब्रमः । घातिकाश्च कर्मप्रकृतयो द्विविधाः-सर्वघातिका देशघातिकाश्चेति । तत्र केवलज्ञानावरण-निद्रानिद्रा-प्रचलाप्रचला-स्त्यानगृद्धि निद्रा-प्रचला केवलदर्शनावरणद्वादशकषायमिथ्यादर्शनमोहाख्या विंशतिप्रकतयः सर्वघातिकाः। मत्यादिज्ञानावरणचतुष्कचक्षुरादिदर्शनावरणत्रयान्तरायपञ्चकसज्वलननोकषायसंज्ञिका देशघातिकाः । तथायमपरोऽपि विशेषो द्रष्टव्यः-शरीरनामादयः स्पर्शान्ता अगुरुलघूपघातपरघातातपोद्योतप्रत्येकशरीरसाधारणशरीरस्थिरास्थिरशुभाशुभनिर्माणसमाख्याश्च पुद्गलविपाकप्रदाः । आनुपूर्व्यनाम क्षेत्रविपाककरम् । आयुर्भवधारणफलम् । अवशिष्टाः प्रकृतयो जीवविपाक हेतवः इति उक्तोनुभागबन्धः । संप्रति प्रदेशबन्धो समाधान-ऐसा नहीं है । नामादि अघाति कर्म भी सिद्धत्व लक्षण वाले जीव के स्वरूप को रोकते हैं अतः पारतन्त्र्यकरण लक्षण वाला कर्मपना उनमें पाया जाता है। शंका-तो फिर उन्हें अघाती क्यों कहते हैं ? समाधान-जीवन मुक्ति लक्षण वाले परम आर्हन्त्य लक्ष्मी का घात नहीं करने से उन्हे अघाती कहते हैं । घातिया कर्म प्रकृतियां दो प्रकार की हैं, सर्वघाती और देश घाती। केवलज्ञानावरण, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा, प्रचला, केवलदर्शनावरण, बारह कषाय और मिथ्यादर्शनमोह ये बीस प्रकृतियां सर्वघाती हैं । मत्यादि चार ज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण आदि तीन, पांच अन्तराय, संज्वलन चार और नव नोकषाय ये देशघातिया प्रकृतियां हैं । तथा कर्मों में एक अन्य विशेषता भी होती है, उसीको बताते हैं-शरीर नाम कर्म से लेकर स्पर्शन तक प्रकृतियां तथा अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, प्रत्येक शरीर, साधारण शरीर, स्थिर अस्थिर, शुभ अशुभ, निर्माण ये प्रकृतियां पुद्गल विपाकप्रद कहलाती हैं। आनुपूर्वी नाम कर्म क्षेत्र विपाकी है, आयुकर्म भव विपाकी है । और शेष सर्व कर्म प्रकृतियां जीव विपाक संज्ञक हैं । इस प्रकार अनुभागबन्ध का कथन किया। .. विशेषार्थ- इस सूत्र में कर्मका फल भोगने के बाद उसका क्या होता है यह बतलाया है। फल देने के अनन्तर वह कर्म झड़ जाता है, आत्मा में ठहरता नहीं है यह बताया है। इसको निर्जरा कहते हैं। निर्जरा दो प्रकार की है, एक यथा समय उदय में आकर कर्मका अभाव होना अर्थात् आत्मा से कर्म पृथक् होकर अकर्म भावको प्राप्त होना । तथा जिस कर्मका अभी उदय का समय नहीं आया है उसका तपश्चरण
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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