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________________ [ ४९९ अष्टमोऽध्यायः बलादुदीर्योदयावली प्रवेश्य वेद्यते-आम्रपनसादिविपाकवदसावविपाकजा निर्जराऽवगन्तव्या। ननु यथोद्देशस्तथा निर्देशो भवतीति संवरात्परत्र निर्जरायाः पाठो युक्त इति पुनर्लाघवार्थ मिह पाठस्य । तत्र हि पाठे क्रियमाणे विपाकोऽनुभव इति पुनरनुवादे गौरवमासज्येत । ततोऽत्राऽनुभवफलत्वेन तत्र तप:फलत्वेन च निर्जरा विज्ञातव्येति । ताः पुनः कर्मप्रकृतयो द्विविधा-घातिका अघातिकाश्चेति । तत्र ज्ञानदर्शनावरणमोहान्तरायाख्या अनन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यलक्षणजीवस्वरूपघातिनीत्वात् घातिकाः । इतरास्तु नामगोत्रवेद्यायुराख्या अघातिकास्तासामात्मस्वरूपाघातिनीत्वात् । ननु कथमेतन्नामादीनां कर्मत्वं पारतन्त्र्यं जीवं स्वीकुर्वन्ति स परतन्त्रीक्रियते वा यस्तानि कर्माणि जीवेन वा मिथ्यादर्शनादिपरिणामः क्रियन्त इति कर्माणीत्युक्तत्वात् । तच्चोक्तयुक्तया नास्तीति चेन्न-तेषामपि सिद्धत्वलक्षण उदयावली में प्रवेश कराके भोगा जाता है वह अविपाकजा निर्जरा है जैसे-आम, पनस आदि फलों को जबरन पकाया जाता है । वैसी अविपाकजा निर्जरा है । शंका-जैसे उद्देश होता है वैसा निर्देश करना होता है, इस न्याय के अनुसार संवर के बाद निर्जना का कथन करना चाहिए। ___समाधान-सूत्र लाघव के लिये यहां पर निर्जरा का पाठ रखा है। यदि संवर के अनंतर आगे निर्जरा का कथन करते तो पुनः विपाकोनुभवः ऐसा पाठ रचना पड़ता और उससे सूत्र गौरव का (अधिक सूत्र रचने का) प्रसंग आता है । इसी कारण से सूत्रकार आचार्य देव ने यहां पर तो अनुभव के फल के द्वारा होने वाली निर्जरा का कथन किया है और वहां पर तपके फलपने से होने वाली निर्जरा का कथन किया है ऐसा समझना चाहिए। उन कर्म प्रकृतियों के दो भेद हैं, घाती कर्म और अघाती कर्म । उनमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घातिया कर्म हैं। ये प्रकृतियां क्रमशः अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य का घात करती हैं इसलिये ये घातिया कहलाती हैं। इतर नाम, गोत्र वेदनीय और आयु ये चार अघातिया कर्म प्रकृतियां हैं । ये सामान्य स्वरूप के घातक नहीं होने से अघातिया हैं। शंका-नाम आदि जो अघाती कर्म हैं उनके कर्मपना किस प्रकार सम्भव है, क्योंकि जो जीवको परतन्त्र करे या जिसके द्वारा परतन्त्र किया जाता है वे कर्म कहलाते हैं । अथवा जीव मिथ्यादर्शनादि परिणामों के द्वारा जिसको करता है, जीव के द्वारा जो किये जाते हैं वे कर्म हैं । इस तरह कर्म शब्दका अर्थ है । यह अर्थ नामादि अघाति कर्मों में घटित नहीं होता, क्योंकि नामादि कर्म जीवको परतन्त्र नहीं करते यह उनके अघातीपने की युक्ति से ही सिद्ध होता है ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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