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________________ ४९८ ] __ सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती वरणवदवतिष्ठते पाहोस्विन्निष्पीडितसारं प्रच्यवत इत्यत्रोच्यते ततश्च निर्जरा ॥ २३ ॥ .तत इत्यनुभवाद्धेतोरित्यर्थः । चशब्दस्तपसा निर्जरा चेति वक्ष्यमाणनिमितान्तरसमुच्चयार्थः । स्वोपात्तकर्मनिर्जरणं निर्जरादेशतः कर्मसंक्षय इत्यर्थः । ततोऽनुभवात्तपसा च निर्जराया जायमानत्वाद्विपाकजाऽविपाकजत्वसद्भावाद्वैविद्धयमुपदर्शितं बोद्धव्यम् । तत्र चतुर्गतावनेकजातिविशेषावधूणिते संसारमहार्णवे चिरं परिभ्रमतो जीवस्य शुभाशुभस्य कर्मण औदयिकभावोदीरितस्य क्रमेण विपाककालप्राप्तस्यानुभवोदयावलीस्रोतोनुप्रविष्टस्यारब्धफलस्य स्थितिक्षयादुदयागतपरिभुक्तस्य या निवृत्तिः सा विपाकजा निर्जरा विज्ञेया। यत्तु कर्माप्राप्तविपाककालमौपक्रमिकक्रियाविशेषसामर्थ्यादनुदीर्ण . सूत्राम शंका-विपाक को अनुभव कहते हैं ऐसा लक्षण यदि किया जाता है तो जिसका फल अनुभूत हो चुका है वह कर्म आवरण (वस्त्रादि) के समान स्थित रहता है या जिसका सार समाप्त हो गया है ऐसा वह नष्ट ही हो जाता है ? समाधान- इसीको सूत्र द्वारा कहते हैंसूत्रार्थ-फल देने के बाद उस कर्म की निर्जरा हो जाती है । सत्रोक्त 'ततः' शब्द अनुभव का सूचक है अर्थात् अनुभव से । च शब्द 'तपसा निर्जरा च' ऐसे आगे कहे जाने वाले सूत्रोक्त निमित्त का समुच्चय करने के लिये है । अपने द्वारा प्राप्त किये गये जो कर्म हैं उनकी निर्जरा होना अर्थात् एक देश से कर्मका क्षय होना निर्जरा कहलाती है । इसतरह अनुभव से और तप से निर्जरा होती है इसीलिये उसके दो भेद विपाकजा और अविपाकजा होते हैं ऐसा समझना चाहिए । अब यहां पर दोनों निर्जराओं का वर्णन करते हैं, सर्व प्रथम विपाकजा निर्जरा को कहते हैं-चारों गतियों से युक्त अनेक जाति विशेषों से व्याप्त इस संसाररूप महासागर में चिरकाल से घूमते हुए इस जीव के शुभाशुभ कर्मके औदायिक भाव से उदीरित हुए कर्मका जो कि विपाककाल को प्राप्त हो चुका है तथा जिसने अनुभव के उदयावली के प्रवाह में प्रविष्ट होकर फल देना प्रारम्भ कर दिया है स्थिति क्षय से जो उदय में आकर भोगा जा चुका है उस कर्म की जो निवृत्ति (हटना) होना है वह विपाकजा निर्जरा है ऐसा जानना चाहिये । तथा जिस कर्म का अभी उदयकाल प्राप्त नहीं हुआ है उसको औपक्रमिक क्रिया विशेष की सामर्थ्य से अनुदीर्ण को जबरदस्ती उदीर्ण करके
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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