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________________ अष्टमोऽध्यायः [ ४९१ धानात्प्रकृष्टा, निकृष्टात्प्रणिधानाज्जघन्या स्यात् । तत्र यासां कर्मप्रकृतीनामुत्कृष्टा स्थितिः समाना सम्भवति तन्निर्देशार्थमाहप्रावितस्तिसणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयः परास्थितिः ॥१४॥ आदित इति वचनं मध्येऽन्ते वा तिसृणां ग्रहणं मा भूदित्येवमर्थम् । आदौ आदितः तस्प्रकरणे आद्यादिभ्य उपसङ्ख्यानमिति तस्प्रत्ययः । तिसृणामिति वचनं प्रकृतिसङ्ख्यावधारणार्थम् । मूलप्रकृतिक्रममुल्लंघयान्तरायस्य चेति सान्त्यं वचनं समानस्थितिप्रतिपत्त्यर्थं क्रियते । का पुनरसो समानस्थितिः? त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयः । उक्तपरिमाणं सागरोपमम् । कोटीनां कोट्यः कोटीकोट्यः । सागरोपमाणां कोटीकोट्यः सागरोपमकोटीकोटयः । त्रिंशच्च ताः सागरोपमकोटीकोट्यश्च त्रिंशत्सागरोपम कोटीकोट्यः । पराग्रहणं जघन्यस्थितिनिवृत्त्यर्थम् । परा उत्कृष्टेत्यर्थः । सा पुमिथ्यादृष्टे: संज्ञिनः पंचेन्द्रियस्य पर्याप्तकस्यज्ञानदर्शनावरणवेदनीयान्तरायाणां त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थितिर्भवति । और उत्कृष्ट । प्रकृष्ट प्रणिधान-परिणाम से उत्कृष्ट स्थिति होतो है और निकृष्ट प्रणिधान से जघन्य स्थिति होती है (कषाय की तीव्रता से उत्कृष्ट स्थिति बंध होता है और कषाय की मन्दता से जघन्य स्थिति बन्ध होता है) .. अब जिन कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति समान है उनका निर्देश करते हैं सूत्रार्थ-आदि की तीन मूल कर्म प्रकृतियां-ज्ञानावरण-दर्शनावरण और वेदनीय तथा अन्तराय इन चार मूल कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडीसागर प्रमाण है। सूत्र में 'आदितः' पद आया है उससे मध्य या अन्त की प्रकृति नहीं लेना यह अर्थ फलित होता है 'आदौ-आदितः' व्याकरण के तस् प्रत्यय के प्रकरण में 'आद्यादिभ्य उपसंख्यानम्' इस सूत्र से सप्तमी अर्थ में भी तस् प्रत्यय आने का विधान है उससे यहां तस् प्रत्यय आकर आदितः पद निष्पन्न हुआ है। तिसृणां पद प्रकृति की संख्या का अवधारण करने हेतु आया है। मूल प्रकृतियों का जो क्रम है उसका उल्लंघन कर अन्तिम अन्त राय का वचन समान स्थिति को बतलाने के लिये लिया गया है, वह समान स्थिति कौनसी है ? तो कहते हैं कि तीस कोडाकोडी सागर प्रमाण है। सागरोपम का माप पहले बता चुके हैं । सागरोपम आदि पदों में तत्पुरुष समास है। पुनः त्रिंशत् पदके साथ कर्मधारय समास हुआ है। परा शब्द से जघन्यस्थिति की निवृत्ति हो जाती है, अर्थात् यह स्थिति उत्कृष्ट है, जघन्य नहीं है । यह उत्कृष्ट स्थिति मिथ्यादृष्टि संज्ञी, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके होती है, अर्थात् मिथ्यादृष्टि संज्ञी जीव ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतराय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति को बांधता है।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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