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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती दृष्टकारणसाकल्येऽपि दातुकामोऽपि न प्रयच्छति । लब्धुकामोऽपि न लभते । भोक्तुमिच्छन्नपि न भुङ ते । उपभोक्तुमभिवाञ्छन्नपि नोपभुङ ते । उत्सहितुकामोऽपि नोत्सहते । त एव पञ्चान्तरायव्यपदेशा वेदितव्याः । ननु भोगोपभोगयोः सुखानुभवननिमित्तत्वाऽभेदाद्विशेषो नास्तीति चेत्तन-गन्धादिशयनादिभेदतस्तभेदसिद्धेः । गन्धमाल्यशिरःस्नानानपानादिषु हि भोगव्यवहारः । शयनासनाङ्गनाहस्त्यश्वरथादिषूपभोगव्यपदेशः । ता एता ज्ञानावरणादीनां मूलप्रकृतीनां यथोत्तरप्रकृतयो निर्दिष्टास्तथोत्तरोतरप्रकृतयोऽपि सन्तीति ताभिरात्मनो बन्धः प्रकृतिबन्धो व्याख्यातः । अतः परं स्थितिबन्धं व्याख्यास्यामः । तत्रासामेव प्रकृतीनामनेकभेदानां यथास्वमविजीर्णानां यावन्तं कालमवस्थानं स्वाश्रयविनाशाभावात्तस्मिन् स्थितिबन्धविवक्षा भवति । सा स्थितिरुभयथा प्रकृष्टा जघन्या च । तत्र प्रकृष्टात्परिण
व्यक्ति देने की इच्छा होते हुए भी दान दे नहीं सकता, लाभ की इच्छा होते हुए भी मिल नहीं पाता, भोगने की इच्छा होते हुए भी भोग नहीं पाता, उपभोग की वाञ्छा रहते हुए भी उपभोग कर नहीं पाता और उत्साह की वाञ्छा करते हुए भी उत्साह नहीं हो पाता । वे ही पांच अन्तराय संज्ञा वाले कर्म होते हैं।
शंका-भोग और उपभोग में सुखानुभवन होने की अपेक्षा कोई भेद नहीं है अतः ये दोनों एक रूप होवे ?
समाधान-ऐसा नहीं है । गन्धादि पदार्थ और शयनादि पदार्थों के भेद से उनमें भेद पाया जाता है, गन्ध, माला, शिरस्नान, अन्नपानादि पदार्थों में भोग शब्द का व्यवहार होता है, और शयन, आसन, स्त्री, हाथी, घोड़ा, रथादि पदार्थों में उपभोग शब्द का व्यवहार होता है। . इस प्रकार ज्ञानावरण आदि मूल प्रकृतियां और उनकी उत्तर कर्म प्रकृतियां कही, जैसे उत्तर प्रकृतियां मूल प्रकृतियों के भेद स्वरूप हैं वैसे उत्तर प्रकृतियों के भी उत्तरोत्तर भेद होते हैं ऐसा समझना चाहिए । इस तरह प्रकृति बन्धका व्याख्यान पूर्ण हआ। अब आगे स्थिति बन्धका व्याख्यान करेंगे । उनमें अनेक भेद वाली वे प्रकृतियां जीर्ण नहीं होकर जितने काल तक अपने आश्रव का विनाश नहीं होने से अवस्थित रहती हैं उनमें स्थिति बन्धकी विवक्षा होती है अर्थात् बन्धी हुई कर्म प्रकृतियां आत्मा में स्थित रहना स्थिति बन्ध कहलाता है, उत्तर प्रकृतियों का आश्रय मूल प्रकृतियां हैं, मूल प्रकृति रहने तक उत्तर प्रकृतियों का आश्रय नष्ट नहीं होता अत : स्वाश्रय विनाश नहीं होने तक इनका अवस्थान आत्मा में पाया जाता है यही स्थिति बन्ध है । यह जो स्थिति है अर्थात् कर्मोंका आत्मा के साथ रहने का काल है वह दो प्रकार का है जघन्य