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________________ अष्टमोऽध्यायः नामानन्तरोद्देशभाजो गोत्रस्य प्रकृतिभेदं व्याचिख्यासुराह [ ४८९ उच्चैर्नीचैश्च ॥ १२ ॥ गोत्रं द्विविधं द्रष्टव्यमुच्चैर्नीचैरिति विशेषणादुच्चैर्गोत्रं नीचैर्गोत्रमिति । तत्र लोकपूजितेषु कुलेषु प्रथितमाहात्म्येष्विक्ष्वाकूग्रकुरुहरिजातिप्रभृतिषु जन्म यस्योदयाद्भवति तदुच्चैर्गोत्रमवसेयम् । गहितेषु दरिद्रप्रतिज्ञातदुःखाकुलेषु कुलेषु यत्कृतं प्राणिनां जन्म तन्नीचैर्गोत्रं प्रत्येतव्यम् । इदानीं गोत्रानन्तरमुद्दिष्टस्यान्तरायस्य प्रकारसंज्ञासङ्कीर्तनार्थमाह दानलाभ भोगोपभोगवीर्याणाम् || १३ || अन्तराय इति वर्तते । तदपेक्षयाऽर्थभेदनिर्देशः क्रियते । दानं च लाभश्च भोगश्चोपभोगश्च वीर्यं च दानलाभभोगोपभोगवीर्याणि । तेषां दानलाभभोगोपभोगवीर्याणामन्तराय इति । एवं च स तैः प्रत्येकमभिसम्बध्यमानः पञ्चविधो जायते । दानान्तरायो लाभान्तरायो भोगान्तराय उपभोगान्तरायो वीर्यान्तराय इति । दानादिपरिणामव्याघातहेतुत्वात्कर्म विशेषस्यान्तरायव्य पदेशो भवति । तस्योदयाद्धि अब नामकर्म के अनन्तर गोत्र कर्मके प्रकृति भेद कहने के इच्छुक आचार्य सूत्र कहते हैं सूत्रार्थ — गोत्र के दो भेद हैं- उच्च गोत्र और नीच गोत्र । गोत्र कर्म दो प्रकार का है, उच्च और नीच विशेषण से दो भेद प्राप्त होते हैं । उसमें जिस कर्मके उदय से लोकपूजित प्रसिद्ध माहात्म्य वाले इक्ष्वाकुवंश, उग्रवंश, कुरुवंश, हरिवंश इत्यादि कुलों में जन्म होता है वह उच्च गोत्र कहलाता है । और दरिद्र, प्रतिज्ञात, दुःखाकुलित और गर्हित कुलों में जिसके उदय से जन्म होता है वह नीच गोत्र है । अब गोत्र के अनन्तर कहा गया जो अन्तराय कर्म है उसके भेदों के नाम बतलाने हेतु सूत्र कहते हैं सूत्रार्थ - दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तिराय ये पांच भेद अन्तराय कर्मके जानने । अन्तराय कर्मका कथन है, उस अपेक्षा से अर्थ भेद किया जाता है, दानादि पदों में द्वन्द्व समास करना । इन दानादि शब्दों में प्रत्येक के साथ अन्तराय शब्द जोड़ने से अन्तराय पांच भेद वाला हो जाता है— दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । दानादि परिणामों में बाधा का कारण होने से कर्म विशेष की अन्तराय संज्ञा होती है, उसके उदय से दृष्ट कारणों की पूर्णता होने पर भी
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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