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अष्टमोऽध्यायः
नामानन्तरोद्देशभाजो गोत्रस्य प्रकृतिभेदं व्याचिख्यासुराह
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उच्चैर्नीचैश्च ॥ १२ ॥
गोत्रं द्विविधं द्रष्टव्यमुच्चैर्नीचैरिति विशेषणादुच्चैर्गोत्रं नीचैर्गोत्रमिति । तत्र लोकपूजितेषु कुलेषु प्रथितमाहात्म्येष्विक्ष्वाकूग्रकुरुहरिजातिप्रभृतिषु जन्म यस्योदयाद्भवति तदुच्चैर्गोत्रमवसेयम् । गहितेषु दरिद्रप्रतिज्ञातदुःखाकुलेषु कुलेषु यत्कृतं प्राणिनां जन्म तन्नीचैर्गोत्रं प्रत्येतव्यम् । इदानीं गोत्रानन्तरमुद्दिष्टस्यान्तरायस्य प्रकारसंज्ञासङ्कीर्तनार्थमाह
दानलाभ भोगोपभोगवीर्याणाम् || १३ ||
अन्तराय इति वर्तते । तदपेक्षयाऽर्थभेदनिर्देशः क्रियते । दानं च लाभश्च भोगश्चोपभोगश्च वीर्यं च दानलाभभोगोपभोगवीर्याणि । तेषां दानलाभभोगोपभोगवीर्याणामन्तराय इति । एवं च स तैः प्रत्येकमभिसम्बध्यमानः पञ्चविधो जायते । दानान्तरायो लाभान्तरायो भोगान्तराय उपभोगान्तरायो वीर्यान्तराय इति । दानादिपरिणामव्याघातहेतुत्वात्कर्म विशेषस्यान्तरायव्य पदेशो भवति । तस्योदयाद्धि
अब नामकर्म के अनन्तर गोत्र कर्मके प्रकृति भेद कहने के इच्छुक आचार्य सूत्र कहते हैं
सूत्रार्थ — गोत्र के दो भेद हैं- उच्च गोत्र और नीच गोत्र । गोत्र कर्म दो प्रकार का है, उच्च और नीच विशेषण से दो भेद प्राप्त होते हैं । उसमें जिस कर्मके उदय से लोकपूजित प्रसिद्ध माहात्म्य वाले इक्ष्वाकुवंश, उग्रवंश, कुरुवंश, हरिवंश इत्यादि कुलों में जन्म होता है वह उच्च गोत्र कहलाता है । और दरिद्र, प्रतिज्ञात, दुःखाकुलित और गर्हित कुलों में जिसके उदय से जन्म होता है वह नीच गोत्र है ।
अब गोत्र के अनन्तर कहा गया जो अन्तराय कर्म है उसके भेदों के नाम बतलाने हेतु सूत्र कहते हैं
सूत्रार्थ - दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तिराय ये पांच भेद अन्तराय कर्मके जानने ।
अन्तराय कर्मका कथन है, उस अपेक्षा से अर्थ भेद किया जाता है, दानादि पदों में द्वन्द्व समास करना । इन दानादि शब्दों में प्रत्येक के साथ अन्तराय शब्द जोड़ने से अन्तराय पांच भेद वाला हो जाता है— दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । दानादि परिणामों में बाधा का कारण होने से कर्म विशेष की अन्तराय संज्ञा होती है, उसके उदय से दृष्ट कारणों की पूर्णता होने पर भी