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________________ ४८८ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तो चक्रधरादिषु तदनुपलब्धेः । अत्र सूत्रे पूर्वे गत्यादयो विहायोगत्यन्ता यतः प्रतिपक्षविरहिताः प्रत्येकशरीरादयस्तु सेतरग्रहणेन विशेषयितुमिष्टास्ततस्तेषामेकवाक्यभावो न कृतः। तीर्थकरत्वस्य तहि किमर्थं पृथक्करणमिति चेत्प्रधानत्वात्तस्येति ब्रू महे। तीर्थकरत्वं हि सर्वेषु शुभकर्मसु प्रधानभूतम् । ततस्तस्य पृथग्ग्रहणं क्रियते । किं च प्रत्यासन्ननिष्ठस्य तीर्थकरत्वस्योदयो जायते । ततस्तस्यान्त्यत्वात्पृथग्ग्रहणं न्याय्यम् । अत्र गत्यादिविहायोगत्यन्तानां शब्दानामितरेतरयोगे वृत्तिर्द्रष्टव्या। तथा प्रत्येकशरीरादियशस्कीय॑न्तानामितरेतरयोगद्वन्द्ववृत्तीनां सेतरग्रहणेन विशेषणभूतेन सह कर्मधारयः । सहेतरैः प्रतिपक्षभूतैर्वन्ति इति सेतराणि प्रत्येकशरीरादीनि प्रोच्यन्ते । अत्र पिण्डाऽपिण्डप्रकृतिसामान्यापेक्षया द्विचत्वारिंशद्भेदं नाम कर्मोक्तम् । गत्यादिपिण्डप्रकृतिभेदापेक्षया तु सर्व त्रिनवतिभेदं बोद्धव्यम् । तत्र पिण्डप्रकृतयः प्रतिनियतानेकभेदसमुदयरूपाश्चतुर्दशैव रूढाः । गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गबन्धनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगन्धवर्णानुपूर्वविहायोगतिसज्ञिकाः । शेषास्त्वपिण्डरूपा अष्टाविंशतिरीरिताः । सम्प्रति यहां पर सूत्र में पहले गति से लेकर विहायोगति तक जो कर्म प्रकृतियां हैं वे प्रतिपक्ष रहित हैं, और प्रत्येक शरीरादिक जो कर्म प्रकृतियां हैं वे सेतर शब्द ग्रहण से विशेषित करना है, अतः उनका एक वाक्य नहीं बनाया है। प्रश्न-तो फिर तीर्थंकरत्व पदको पृथक् क्यों किया है ? उत्तर-उसकी प्रधानता बतलाने के लिए पृथक पद किया है, क्योंकि सर्व ही शुभप्रकृतियों में तीर्थकरत्व प्रधानभूत है, अतः उसका पृथक ग्रहण हुआ है। दूसरी बात यह भी है कि प्रत्यासन्न निष्ठ के अत्यन्त निकटतम है मुक्ति जिनके उनके तीर्थंकरत्व का उदय आता है, अतः यह अन्त्य-चरम देही के होने के कारण उसको पृथक् ग्रहण करना युक्त ही है। यहां गति से होकर विहायोगति तक के शब्दों का इतरेतर द्वन्द्व समास हुआ है, तथा प्रत्येक शरीर से लेकर यशस्कीत्ति तक के पदों में भी इतरेतर द्वन्द्व समास करके विशेषणभूत सेतर शब्दके साथ कर्मधारय समास हुआ है। इतर अर्थात् प्रतिपक्षभूत के साथ जो रहती हैं वे सेतर हैं अर्थात् प्रत्येक शरीर आदि को सेतर कहा है। यहां पर पिण्ड प्रकृति और अपिण्ड प्रकृति इस तरह कुल मिलाकर बियालीस भेद नाम कर्म के कहे गये हैं। गति आदि पिण्डरूप प्रकृतियों के भेद कर देने पर नाम कर्म तिरानवें भेद वाला होता है, प्रतिनियत अनेक भेदस्वरूप जो प्रकृतियां होती हैं उन्हें पिण्ड प्रकृतियां कहते हैं वे चौदह हैं-गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, आनुपूर्वी और विहायोगति । शेष अट्ठावीस प्रकृतियां अपिण्डरूप हैं।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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